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________________ १७८] * जैन-तत्त्व.प्रकाश ज्ञान का दूसरों को भी लाभ देना अर्थात् परिषद् में उपदेश देना धर्मकथा नामक स्वाध्याय है । इससे आत्मकल्याण के साथ ही साथ जिनशासन की उन्नति, धर्म की वृद्धि आदि महा उपकार होता है। यह पाँच प्रकार का स्वाध्याय तप है। (१०) ध्यानतप-ध्यानतप के ४८ प्रकार हैं। वे इस, भाँति हैं:ध्यान चार प्रकार का है---प्रार्तध्यान, रौद्रध्यान, धर्मध्यान और. शुक्लध्यान । इनमें पहले के दो ध्यान अशुभ हैं और अन्तिम दो ध्यान शुभ हैं । ___ आर्त्तध्यान चार प्रकार का है—(१) मनोज्ञ शब्द, रूप, रस, गंध और स्पर्श का संयोग चाहना (२) अमनोज्ञ शब्द आदि विषयों का वियोग चाहना (३) ज्वर आदि रोगों का नाश चाहना (४) प्राप्त कामभोगों के बने रहने की इच्छा करना । इन चार का पुनः पुनः चिन्तन करना चार प्रकार का आर्तध्यान है। आर्त्तध्यानी के चार लक्षण हैं:-(१) आक्रन्दन और रुदन करना (२) शोक और चिन्ता करना (३) अश्रुपात करना और (४) विलाप करना। रौद्रध्यान चार प्रकार का है-(१) हिंसा करने का विचार करना (२) झूठ बोलने का विचार करना (३) चोरी करने का विचार करना और (४) भोगोपभोगों की रक्षा करने का विचार करना । रौद्रध्यानी के चार लक्षण हैं:-(१) हिंसा आदि कृत्य करना (२) धृष्टता के साथ बार-बार हिंसा आदि करना (३) अज्ञान. से हिंसा में धर्म स्थापित करना और कामशास्त्र का अभ्यास करना । (४) मृत्यु पर्यन्तः पाप का प्रायश्चित्त न करना। धर्मध्यान के चार पाये हैं:-(१) आज्ञाविचय-'हे जीव ! वीतराग ने तो आरंभ और परिग्रह को हेय कहा है और तू उसमें लुब्ध हो रहा है । तेरी क्या गति होगी ?' इस प्रकार वीतराग की आज्ञा का विचार करना (२) अपायविचय-रे जीव ! तू राग-द्वेष के बन्धन में बंधा और इस कारण
SR No.010014
Book TitleJain Tattva Prakash
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmolakrushi Maharaj
PublisherAmol Jain Gyanalaya
Publication Year1954
Total Pages887
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size96 MB
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