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________________ १३४ ] ® जैन-तत्त्व प्रकाश न किएहे, न नीले, न लोहिए, न हालिद्दे, न सुक्किल्ले, न सुरभिगंधे, न दुरभिगंधे, न तिते, न कडुए, न कसाए, न अंबिले, न महुरे, न कक्कडे, न मउए, न गुरुए, न लहुए, न सीए, न उपहे, न णिद्धे, न लुक्खे, न काऊ, न रुद्दे, न संगे, न इत्थी, न पुरिसे, न अन्नहा, परिगणे, सरणे, उवमा न विज्जति, अरूवी सत्ता, अपयस्स पयं णत्थि ; से न सद्दे, न रूवे, न रसे, न फासे, इच्चेतावंती, ति बेमि । अर्थ-शुद्ध आत्मा (सिद्ध ) का वर्णन करने में कोई शब्द समर्थ नहीं है, कोई भी कल्पना वहाँ तक पहुँचती नहीं है। मति भी वहाँ प्रवेश नहीं करती । केवल सम्पूर्ण ज्ञानमय आत्मा ही वहाँ है। सिद्ध दीर्घ (लम्बे) नहीं, हस्व (छोटे नहीं), वृत्त (गोलाकार) नहीं, त्रिकोण नहीं, चौकोर नहीं, मण्डलाकार (चूड़ी की तरह) नहीं, लम्बनहीं, काले नहीं, नीले नहीं, लाल नहीं, पीले नहीं, शुक्ल नहीं, सुगंधवान् नहीं, दुर्गन्धवान् नहीं, तिक्त नहीं, कटुक नहीं, कसैले नहीं, खट्टे नहीं, मीठे नहीं, कठोर नहीं, कोमल नहीं, गुरु (भारी) नहीं, लघु नहीं, शीत नहीं, उष्ण नहीं, चिकने नहीं, रुखे नहीं। स्त्री नहीं, पुरुष नहीं, नपुंसक नहीं, केवल परिज्ञान रूप हैं, ज्ञानमय हैं, उनके लिए कोई उपमा नहीं दी जा सकती। वे अरूपी अलक्ष्य हैं। उनके लिए किसी पद का प्रयोग नहीं किया जा सकता । वे शब्द, रूप, गंध, रस और स्पर्श रूप नहीं हैं। इस प्रकार समस्त पौद्गलिक गुणों और पर्यायों से अतीत, शब्दों द्वारा अनिर्वचनीय सत्-चित्-आनन्दमय सिद्ध स्वरूप है। भक्तामरस्तोत्र में कहा है त्वामव्ययं विभुमचिन्त्यमसंख्यमाद्य, ब्रह्माणमीश्वरमनन्तमनङ्गकेतुम् । योगीश्वरं विदितयोगमनेकमेकम्, ज्ञानस्वरूपममलं प्रवदन्ति सन्तः ॥ अर्थ-हे प्रभो ! स्थिर एक स्वभाव वाले होने के कारण आपको सन्त पुरुष 'अव्यय' कहते हैं, परमैश्वर्य और ज्ञान स्वरूप से व्यापक होने के
SR No.010014
Book TitleJain Tattva Prakash
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmolakrushi Maharaj
PublisherAmol Jain Gyanalaya
Publication Year1954
Total Pages887
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size96 MB
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