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________________ ॐ सिद्ध भगवान् संसार-अवस्था में कार्मणवर्गणा के पुद्गलों के साथ आत्मा के प्रदेश, क्षीरनीर की तरह मिले रहते हैं । सिद्ध अवस्था प्राप्त होने पर कर्मप्रदेश भिन्न हो जाते हैं और केवल आत्मप्रदेश ही रह जाते हैं और वे सघन हो जाते हैं । इस कारण अन्तिम शरीर से तीसरे भाग कम, आत्मप्रदेशों की अवगा. हना सिद्ध दशा में रह जाती है । उदाहरणार्थ-५०० धनुष की अवगाहना वाले शरीर को त्याग कर कोई जीव सिद्ध हुआ है ; तो उसकी अवगाहना वहाँ ३३३ धनुष और ३२ अंगुल की होगी। जो जीव सात हाथ के शरीर को त्याग कर सिद्ध हुए हैं, उनकी अवगाहना वहाँ ४ हाथ और १६ अंगुल की है। जो जीव दो हाथ की अवगाहना वाले शरीर को त्याग कर सिद्ध हुए हैं, उनकी एक हाथ और आठ अंगुल की अवगाहना होगी। सिद्ध भगवान के आठ गुणः-(१) पांच प्रकार के ज्ञानावरणीय कर्म का क्षय होने से अनन्त केवलज्ञान गुण प्रकट हुआ, जिससे सिद्ध भगवान् सब द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव को जानते हैं। (२) नौ प्रकार के दर्शनावरण कर्म का क्षय होने से अनन्त केवलदर्शन गुण प्रकट हुआ, जिससे सब द्रव्य आदि देखने लगे (सामान्य रूप से जानने लगे), (३) दोनों प्रकार का वेदनीय कर्म नष्ट हो जाने से निराबाध (व्याधि-वेदना से रहित) हो गये। (४) दो प्रकार का मोहनीय कर्म नष्ट हो जाने से अगुरुलघु (गुरुता और लघुता से रहित) हुए । (५) चारों प्रकार का आयु कर्म क्षय हो जाने से अजर-अमर हो गये । दोनों प्रकार का नाम कर्म क्षीण हो जाने से अमूर्तिक हुए। (७) दोनों प्रकार का गोत्र कर्म नष्ट हो जाने से अखोड़ (अपलक्षणों से रहित) हुए । और (८) पाँच प्रकार का अन्तराय कर्मक्षीण हो जाने से अनन्त शक्तिमान् हुए। आचाराङ्ग सूत्र के प्रथम श्रुतस्कन्ध, पांचवें अध्याय और छठे उद्देशक में सिद्धों का स्वरूप इस प्रकार बतलाया है: सव्वे सरा नियदृति, तक्का तत्थ न विजइ । मई तत्थ न गाहिया, ओए अप्पइट्टाणस्स खेयने ॥ से न दीहे, न हस्से, न तसे, न चउरसे, न परिमंडले, न प्राइसे,
SR No.010014
Book TitleJain Tattva Prakash
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmolakrushi Maharaj
PublisherAmol Jain Gyanalaya
Publication Year1954
Total Pages887
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size96 MB
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