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________________ * सिद्ध भगवान् [ PP& में बाकी सारा लोक है । सर्वार्थसिद्ध विमान से १२ योजन ऊपर ४५००००० योजन की लम्बी-चौड़ी, गोलाकार सिद्धशिला है । वह मध्य में आठ योजन मोटी और चारों तरफ क्रम से घटती-घटती किनारे पर मक्खी के पंख से भी अधिक पतली हो गई है । उसकी परिधि (घेरा) १४२३०२४६ योजन की है । वह अर्जुन (श्वेत सुवर्ण) मय है । छत्र तथा तेल से परिपूर्ण दीपक के कार की है। उस सिद्धशिला के बारह नाम हैं - (१) ईषत् (२) ईषत् प्रागभार (३) तनु (४) तनुतर (५) सिद्धि (६) सिद्धालय (७) मुक्ति ( ८ ) मुक्तालय (६) लोकाग्र (१०) लोकाग्रस्तूपिका (११) लोकाग्र बुध्यमान (१२) सर्व-प्राण-भूत-जीव-सत्वसुखावहा । इस सिद्धशिला के एक योजन ऊपर, अग्रभाग में ४५००००० योजन लम्बे-चौड़े और ३३३ धनुष और ३२ गुल जितने ऊँचे क्षेत्र में अनन्त सिद्ध भगवान् विराजमान हैं। यहीं लोक अन्त हो जाता है । लोक के चारों ओर अनन्त और असीम अलोकाकाश है । श्रलोकाकाश में आकाश द्रव्य के अतिरिक्त और कोई द्रव्य नहीं होता । खाली आकाश ही आकाश है । तीसरे नरक से दूसरे नरक तक घनाकार रज्जु १६ १० दूसरे पहले पहला दूसरा देवलोक १० 35 १६ ॥ तीसरा चौथा पाँच-छठा सातवाँ आठवाँ नौवाँ -दसवाँ ग्यारवाँ - बारहवाँ नौ ग्रैवेयक "" प्रथम 95 मध्यलोक तक 53 33 " 99 39 39 पाँच अनुत्तर विमान सिद्ध क्षेत्र सर्व लोक घनाकार रज्जु 59 33 "" 35 "3 "" 53 "" 25 "" "" "2 33 99 33 "" "" "" 33 39 33 "3 " १६॥ ३६॥ १४।। १२॥ १०। 대 ६॥ ११ ३४३
SR No.010014
Book TitleJain Tattva Prakash
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmolakrushi Maharaj
PublisherAmol Jain Gyanalaya
Publication Year1954
Total Pages887
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size96 MB
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