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________________ १२८] ॐ जैन-तत्त्व प्रकाश ® - सभी देव एक सरीखी ऋद्धि के धारक हैं । इस कारण यह सभी ‘अहमिन्द्र' कहलाते हैं। ___उक्त १२ स्वर्ग, 6 ग्रैवेयक और ५ अनुत्तरविमान--सब २६ स्वर्गों के सत्र ६२ प्रतर और ८४६७०२३ विमान हैं। सभी विमान रत्नमय हैं । वे सब अनेक स्तंभों से परिमण्डित, भाँति-भाँतिके चित्रों से चित्रित, अनेक खूटियों और लीलायुक्त पुतलियों से सुशोभित, सूर्य के समान जगमगाते हुए और सुगंध से मघमघायमान हैं। प्रत्येक विमान के चारों ओर बगीचे हैं, जिनमें रत्नमय वावड़ियाँ रत्नमय निर्मल जल और कमलों से मनोहर प्रतीत होती हैं । रत्नों के सुन्दर वृक्ष, पेलें, गुच्छे, गुल्म और तृण वायु से हिलते हैं। जब वे आपस में टकराते हैं तो उन में से छह राग छत्तीस रागनियाँ निकलती हैं। वहाँ सोने-चाँदी की रेत पिछी है और तरह-तरह के प्रासन पड़े हैं। अति सुन्दर, सदैव नवयौवन से ललित, दिव्य तेज वाले, समचतुरस्त्र संस्थान के धारक, अति उत्तम मणि रत्नों के वस्त्रों के धारक, दिव्य अलंकारों से अलंकृत देव और देवियाँ इच्छित क्रीड़ा करते हुए, इच्छिन भोग भोगते हुए पूर्वोपार्जित पुण्य के फल को भोगते हैं। जिस देव की जितने सागरोपम की आयु है, वे उतने ही पक्ष में श्वासोच्छवास लेते हैं और उतने ही हजार वर्षों में उन्हें आहार करने की इच्छा होती है । जैसे सर्वार्थसिद्ध विमान के देवों की आयु तेतीस सागरोपम की है, तो वे तेतीस पक्ष में अर्थात् १६॥ महीनों में एक बार श्वासोच्छ्वास लेते हैं और तेतीस हजार वर्षों के बाद आहार ग्रहण किया करते हैं । देव कवलाहार नहीं करते, किन्तु रोमाहार करते हैं । अर्थात् जब उन्हें आहार की इच्छा होती है तब रत्नों के शुभ पुद्गलों को रोमों द्वारा खींच कर तृप्त हो जाते हैं। सर्वार्थसिद्ध विमान से १२ योजन ऊपर, ११ रज्जु घनाकार विस्तार * सर्वलोक के घनाकार ३४३ रज्जु का हिसाबःनिगोद से सातवे नरक तक घनाकार रज्जु ४६ सातवें नरक से छठे नरक तक , ४० छठे नरक से पाँचवें नरक तक , ३४ पाँचवें नरक से चौथे नरक तक , २८ चौथे नरक से तीसरे नरक तक , २२
SR No.010014
Book TitleJain Tattva Prakash
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmolakrushi Maharaj
PublisherAmol Jain Gyanalaya
Publication Year1954
Total Pages887
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size96 MB
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