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________________ ॐ अरिहन्त ॐ [१२७ इन पाँचों विमानों में रहने वाले देवों के शरीर का मान एक हाथ का है। आयु चार विमानों के देवों की जघन्य ३१ सागरोपम और उत्कृष्ट ३३ सागरोपम की है । सर्वार्थसिद्ध विमान वासी देवों की आयु ३३ सागरोपम की है। इसमें जघन्य और उत्कृष्ट का भेद नहीं है । सब देवों की आयु बराबर है। यह पाँचों विमान सब विमानों में उत्कृष्ट और सब से ऊपर होने के कारण अनुत्तरविमान कहलाते हैं। सर्वार्थसिद्ध विमान के मध्य छत में एक चंद्रवा २५६ मोतियों का है। उन सबके बीच का एक मोती ६४ मन का है। उसके चारों तरफ चार मोती ३२-३२ मन के हैं । इनके पास आठ मोती १६-१६ मन के हैं। इनके पास सोलह मोती आठ-आठ मन के हैं। इनके पास बत्तीस मोती चार-चार मन के हैं। इनके पास ६४ मोती दो-दो मन के हैं और इनके पास १२८ मोती एक-एक मन के हैं। यह मोती हवा से आपस में टकराते हैं तो उनमें से छह राग और छत्तीस रागनियाँ निकलती हैं । जैसे मध्याह्न का सूर्य सभी को अपने-अपने सिर पर दिखलाई देता है, उसी प्रकार यह चन्द्रवा भी सर्वार्थसिद्ध-निवासी सभी देवों को अपने-अपने सिर पर मालूम पड़ता है । इन पाँचों विमानों में शुद्ध संयम का पालन करने वाले, चौदह पूर्व के पाठी साधु उत्पन्न होते हैं । वे वहाँ सदैव ज्ञान-ध्यान में निमग्न रहते हैं । जब उन्हें किसी प्रकार का संशय उत्पन्न होता है तब वे शय्या से नीचे उतर कर, यहाँ जो तीर्थङ्कर भगवान् विराजमान होते हैं, उन्हें नमस्कार करके प्रश्न पूछते हैं । भगवान् उस प्रश्न के उत्तर को मनोमय पुद्गलों में परिणत करते हैं । देव अवधिज्ञान से उसे ग्रहण करते हैं और उनका समाधान हो जाता है। पाँचों अनुत्तर विमानवासी देव एकान्त सम्यग्दृष्टि हैं । चार अनुत्तर विमानों के देव संख्यात (कतिपय) भव करके और सर्वार्थसिद्ध विमान के देव एक ही भव करके अर्थात् मनुष्य होकर मोक्ष प्राप्त करते हैं । यहाँ के देव सर्वाधिक सुख के भोक्ता हैं । बारहवें देवलोक से ऊपर अर्थात् नौ ग्रैवेयक और पाँच अनुत्तर विमानों में इन्द्र, सामानिक, त्रायस्त्रिंश, आत्मरक्षक आदि छोटे-बड़े का भेद नहीं है।
SR No.010014
Book TitleJain Tattva Prakash
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmolakrushi Maharaj
PublisherAmol Jain Gyanalaya
Publication Year1954
Total Pages887
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size96 MB
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