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________________ १२६ ] ® जैन-तत्त्व प्रकाश ___ ग्यारहवें-बारहवें देवलोक की सीमा से दो रज्जु ऊपर और आठ रज्जु घनाकार विस्तार में, गागर-बेवड़े के आकार, एक दूसरे के ऊपर, आकाश के आधार से नव ग्रेवेयक देवलोक हैं । इनके तीन त्रिक में नौ प्रतर हैं ! पहले त्रिक (तीन के सम्रह) में (१) भद्र (२) सुभद्र और (३) सुजात नामक तीन ग्रैवेयक हैं । इन तीनों में १११ विमान हैं। दूसरे त्रिक में (४) सुमानस (५) सुदर्शन और (६) प्रियदर्शन नामक तीन ग्रैवेयक हैं। इन तीनों में १०७ विमान हैं । तीसरे त्रिक में (७) अमोह (८) सुप्रतिभद्र और यशोधर नामक तीन ग्रैवेयक हैं। इन तीनों में १०० विमान हैं। यह सब एक हजार योजन ऊँचे हैं और २२०० योजन की अंगनाई वाले हैं । अवेयक के देवों का शरीर दो हाथ की अवगाहना वाला है । आयु इस प्रकार है:ग्रैवेयक जघन्य आयु उत्कृष्ट आयु पहला २२ सागरोपम २३ सागरोपम दूसरा २३ ॥ तीसरा २४ ॥ २५ ॥ चौथा २५ ॥ पाँचवाँ २६ , २७ " छठा २८ , सातवाँ २८ ॥ आठवाँ २६ ॥ नौवाँ ३० " ३१ ॥ गवेयक की सीमा से एक रज्जु ऊपर, ६॥ रज्जु घनाकार विस्तार में, चारों दिशाओं में चार विमान है। वे ११०० ऊँचे और २१०० योजन की अँगनाई वाले तथा असंख्यात योजन लम्बे-चौड़े हैं । इन चारों विमानों के मध्य में १००००० योजन लम्बा-चौड़ा और गोलाकार पाँचवाँ विमान है। इन पाँचों विमानों के नाम इस प्रकार हैं :-(१) पूर्व में विजय (२) दक्षिण में वैजयन्त (३) पश्चिम में जयन्त (४) उत्तर में अपराजित और (५) मध्य में सर्वार्थसिद्ध विमान है। २६ " २७ ,
SR No.010014
Book TitleJain Tattva Prakash
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmolakrushi Maharaj
PublisherAmol Jain Gyanalaya
Publication Year1954
Total Pages887
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size96 MB
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