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________________ १३० ] * जैब-तत्त्व प्रकाश सिद्ध भगवान् का वर्णन - पूर्वोक्त सिद्ध क्षेत्र में पन्द्रह प्रकार के सिद्ध हुए हैं । वे इस प्रकार हैं:(१) तीर्थङ्करसिद्ध - जो तीर्थङ्कर पदवी भोगकर सिद्ध हुए हैं 1 (२) तीर्थङ्करसिद्ध - सामान्य केवली होकर जो सिद्ध हुए हैं । (३) तीर्थसिद्ध साधु, साध्वी, श्रावक और श्राविका रूप चतुर्विध तीर्थ की स्थापना होने के बाद जो सिद्ध हुए हैं । (४) तीर्थ सिद्ध तीर्थ की स्थापना से पहले या तीर्थ का विच्छेद हो जाने के बाद जो सिद्ध हुए हैं । (५) स्वयंबुद्धसिद्ध – जातिस्मरण आदि ज्ञान से अपने पूर्वभवों को जानकर गुरु के विना, स्वयं दीक्षा धारण करके जो सिद्ध हुए हैं । (६) प्रत्येकबुद्ध सिद्ध — वृक्ष, वृषभ, श्मशान, मेघ, वियोग या रोग आदि का निमित्त पाकर अनित्य आदि भावना से प्रेरित होकर, स्वयं दीक्षा लेकर जो सिद्ध हुए हैं । (७) बुद्धबोधितसिद्ध — श्राचार्य श्रादि से बोध प्राप्त करके, दीक्षा धारण करके जो सिद्ध हुए हैं । (८) स्त्री । उगसि - वेद - विकार को क्षय करके, स्त्री के शरीर से जो सिद्ध हुए हैं। (६) पुरुषलिंग सिद्ध - जो पुरुष - शरीर से सिद्ध हुए हैं । (१०) नपुंसकलिंग सिद्ध — जो नपुंसक के शरीर से सिद्ध हुए हैं। (११) अन्यलिंग सिद्ध - रजोहरण मुखवस्त्रिका आदि साधु का वेष धारण करके जो सिद्ध हुए हैं । (१२) अन्यलिंग सिद्ध - किसी अन्यलिंगी को पुष्कर तपश्चरण आदि से विभंग ज्ञान की प्राप्ति हो, जिससे जिनशासन का अवलोकन करके अनु रागी बनने पर अज्ञान मिट जाय और अवधिज्ञानी बन कर परिणाम शुद्ध * नववें सुविधिनाथजी से सत्तरवें कुन्थुनाथजी तक उनके मोक्ष अन्तर में मोक्ष गये बान्तर में तीर्थ का उच्छेद हुआ। उस वक्त सिद्ध हुए सो तीर्थ सिद्ध जानना ।
SR No.010014
Book TitleJain Tattva Prakash
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmolakrushi Maharaj
PublisherAmol Jain Gyanalaya
Publication Year1954
Total Pages887
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size96 MB
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