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________________ * सिद्ध भगवान् [ १०७ (६) 'कालनिधि' अष्टाङ्ग निमित्त सम्बन्धी, इतिहास सम्बन्धी तथा कुम्भकार आदि के शिल्प सम्बन्धी शास्त्रों की प्राप्ति होती है । (७) 'महाकालनिधि' से स्वर्ण आदि धातुओं की, वर्त्तनों की और नकद धन की प्राप्ति होती है । (८) ' माणवडनिधि' से सब प्रकार के अस्त्रों और शस्त्रों की प्राप्ति होती है । (E) 'शङ्खनिधि' से धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष के साधन बतलाने वाले शास्त्र की तथा प्राकृत, संस्कृत, अपभ्रंश, संकीर्ण गद्य-पद्यमयं शास्त्रों की और सब प्रकार के वादित्रों की प्राप्ति होती है । यह नौ ही महानिधियाँ सन्दूक के समान १२ योजन लम्बे, ६ योजन चौड़े, ८ योजन ऊँचे चक्र से युक्त, जहाँ समुद्र और गङ्गा का समाम हुआ है वहाँ रहती हैं। जब चक्रवर्त्ती अष्टमभक्त (तेला) तप करके East राधना करते हैं, तब वहाँ चक्रवर्ती के पैर के नीचे आकर रहती हैं । इनमें से द्रव्यमय वस्तु तो साक्षात् निकलती है और कर्मरूप वस्तु को बतलाने वाली विधियों की पुस्तकें निकलती हैं; जिन्हें पढ़कर इष्ट अर्थ की सिद्धि की जा सकती है । चक्रवर्ती की आयु पूर्ण होने के पश्चात् अथवा दीक्षा लेने के बाद यह सब साधन अपने-अपने स्थान पर चले जाते हैं । चौदह रत्न और नव निधियाँ एक-एक हजार देवों से अधिष्ठित होती हैं । वह देव ही पूर्वोक्त सब कार्य करते हैं । अन्य ऋद्धि चक्रवर्ती महाराज के २००० आत्मरक्षक देव होते हैं। के ३२००० देशों में (२१००००० कोस में ) राज्य छहों खण्डों होता है 1 * २८ पुरुषों और ३२ स्त्रियों का - ६० व्यक्तियों का एक कुल गिना जाता है । ऐसे १०००० कुलों का एक ग्राम और ३०००० ग्रामों का एक देश माना जाता है । पाँच अनार्य खंडों में से प्रत्येक में ऐसे ५३३६ देश हैं और मध्य के चार्य खंड में ५३२० देश होते हैं । इस प्रकार ३२००० देशों में ३१६७४ || देश अनार्य हैं और सिर्फ २५|| देश आर्य होते हैं ।
SR No.010014
Book TitleJain Tattva Prakash
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmolakrushi Maharaj
PublisherAmol Jain Gyanalaya
Publication Year1954
Total Pages887
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size96 MB
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