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जैन-तत्त्व प्रकाश
बाजार आदि सब सामग्री से युक्त नगर बना देता है । रास्ते में चक्रवर्ती अपने समस्त परिवार के साथ उसमें निवास करते हैं ।
(११) पुरोहितरत्न - शुभ मुहूर्त्त बतलाता है । लक्षण, हस्तरेखा आदि (सामुद्रिक), व्यंजन ( तिल, मसा आदि) स्वप्न, अंग का फड़कना - इत्यादि सबका शुभ-अशुभ फल बतलाता है । शान्तिपाठ करता है । जाप करता है ।
(१२) स्त्रीरत्न - (श्रीदेवी) वैताढ्यपर्वत की उत्तर श्रेणी के स्वामी विद्याधर की पुत्री होती है । अत्यन्त सुरूपवती और सदैव कुमारिका के समान युवती रहती है । इसका देहमान चक्रवर्ती के देहमान से चार अंगुल कम होता है । यह पुत्र प्रसव नहीं करती हैं ।
(१३) श्वरत्न - (कमलापति घोड़ा) पूंछ से मुख तक १०८ अंगुल लम्बा, खुर से कान तक ८० अंगुल ऊँचा, क्षण भर में अभीष्ट स्थान पर पहुँचा देने वाला और विजयप्रद होता है ।
(१४) गजरत्न - यह चक्रवर्ती से दुगुना उँचा होता है। महा सौभायशील, कार्यदक्ष और अत्यन्त सुन्दर होता है । (यह अश्व और हाथी वैताढ्यपर्वत के मूल में उत्पन्न होते हैं । )
चक्रवर्त्ती महाराज के यह चौदह रत्न ( श्रेष्ठ पदार्थ) होते हैं ।
नवनिधियाँ
(१) 'सर्पनिधि' से ग्राम यदि वसाने की तथा सेना का पड़ाव डालने की सामग्री और विधि प्राप्त होती है ।
(२) 'पंडूक निधि' से तोलने और नापने के उपकरण प्राप्त होते हैं । (३) 'पिंगलनिधि' से मनुष्यों और पशुओं के सब प्रकार के आभूषण प्राप्त होते हैं ।
(४) 'सर्वरत्ननिधि' से चक्रवर्ती को १४ रत्न और सब प्रकार के रत्नों तथा जवाहरात की प्राप्ति होती है ।
(५) 'महापद्मनिधि' से वस्त्रों की तथा वस्त्रों को रङ्गने की सामग्री प्राप्त
होती है।