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ॐ सिद्ध भगवान् छ
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दूरी पर स्थित शत्रु का सिर काट डालता है । (यह चारों रत्न चक्रवर्ती की आयुधशाला में उत्पन्न होते हैं ।)
(५) मणिरत्न–चार अंगुल लम्बा और दो अंगुल चौड़ा होता है। इसे ऊँचे स्थान पर रख देने से दो योजन तक चन्द्रमा के समान प्रकाश करता है । अगर हाथी के मस्तक पर रख दिया जाय तो सवार को किसी प्रकार का भय नहीं होता।
(६) कांगनीरत्न-छहों ओर से चार-चार अंगुल लम्बा-चौड़ा, सुनार के ऐरन के समान, ६ तले, ८ कोने और १२ हांसे वाला तथा ८ सोनैया भर वजन का होता है। इस से वैताढ्य पर्वत की गुफाओं में एक-एक योजन के अन्तर पर ५०० धनुष के गोलाकार ४६ मंडल किये जाते हैं । उसका चन्द्रमा के समान प्रकाश जब तक चक्रवर्ती जीवित रहते हैं तब तक बना रहता है।
(७) चर्मरत्व-यह दो हाथ लम्बा होता है । यह १२ योजन लम्बी और ह योजन चौड़ी नौका रूप हो जाता है । चक्रवर्ती की सेना इस पर सवार हो कर गङ्गा और सिंधु जैसी महानदियों को पार करती है । ( यह तीनों रत्न चक्रवर्ती के लक्ष्मीभण्डार में उत्पन्न होते हैं। )
(८) सेनापतिरत्न-बीच के दोनों खंडों को चक्रवर्ती स्वयं जीतता है और चारों कोनों के चारों खण्डों को चक्रवर्ती का सेनापति जीतता है। यह वैताढ्यपर्वत की गुफाओं के द्वार दंड का प्रहार करके खोलता है और म्लेच्छों को पराजित करता है।
(8) गाथापसिरत्न-चर्मरत्न को पृथ्वी के आकार का बना कर, उस पर २४ प्रकार का धान्य और सब प्रकार के मेवा-मसाले, शाक-भाजी आदि दिन के पहले पहर में लगाते हैं, दूसरे पहर में सब पक जाते हैं और तीसरे पहर में उन्हें तैयार करके चक्रवर्ती आदि को खिला देता है ।
(१०) वर्धकिरन-मुहूर्त भर में १२ योजन लम्बा, ६ योजन चौड़ा और ४२ खंड का महल, पौषधशाला, रथशाला, घुड़साल, पाकशाला,