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________________ ॐ अरिहन्त ॐ [ ६७ हजार देवियों का परिवार है । ४००० सामानिक देव हैं । १६००० आत्मरक्षक देव हैं। आभ्यन्तर परिषद् के ८००० देव हैं। मध्य परिषद् के १०००० देव हैं और बाह्य परिषद् के १२००० देव हैं। सात प्रकार की अनीक हैं । इसके सिवाय और भी बहुत-सा परिवार है । वे पूर्वोपार्जित पुण्य के फल भोग रहे हैं। इस प्रकार इस भूतल से ६०० योजन नीचे और ६०० योजन ऊपर-कुल १८०० योजन में मध्यलोक है । मेरुपर्वत तीनों लोकों का स्पर्श करता है। काल-चक्र (१) अवसर्पिणीकाल ज्योतिषचक्र के वर्णन में बतलाया गया है कि समय, श्रावलिका, घटिका, दिन, रात, मास, वर्ष श्रादि काल का विभाग और परिमाण चन्द्र, सूर्य आदि ज्योतिष्क देवों के भ्रमण के कारण होता है। अतएव ज्योतिषी देवों के वर्णन के पश्चात् यहाँ काल-चक्र का वर्णन कर देना आवश्यक है। मुख्य रूप से काल के दो विभाग हैं-(१) अवसर्पिणीकाल और (२) उत्सर्पिणी काल । जिस काल में जीवों की शक्ति, अवगाहना, आयु क्रमशः घटती जाती है वह अवसर्पिणी काल कहलाता है और जिस काल में शक्ति, अवगाहना और आयु आदि में क्रमशः वृद्धि होती जाती है, वह उत्सर्पिणी काल कहलाता है। अवसर्पिणीकाल समाप्त होने पर उत्सर्पिणीकाल आता है और उत्सर्पिणीकाल के समाप्त होने पर अबसर्पिणीकाल आता है। अनादिकाल से यह क्रम चला आ रहा है और अनन्त काल तक यही क्रम चलता ___ यहाँ यह बात ध्यान में रखनी चाहिए कि पहले मध्यलोक का जो विस्तारपूर्वक वर्णन दिया गया है, उसमें से भरतक्षेत्र और ऐरावत क्षेत्र में ही काल का यह भेद होता है। इन दोनों क्षेत्रों के अतिरिक्त और किसी भी क्षेत्र पर कालचक्र का प्रभाव नहीं पड़ता । अतएव वहाँ सदैव एक-सी स्थिति रहती है।
SR No.010014
Book TitleJain Tattva Prakash
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmolakrushi Maharaj
PublisherAmol Jain Gyanalaya
Publication Year1954
Total Pages887
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size96 MB
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