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________________ उत्सर्पिणीकाल १० कोडाकोड़ी सागरोपम का है और अवसर्पिणीकाल भी इतना ही है। अतएव दोनों मिल कर २० कोड़ाकोड़ी सागरोपम का एक कालचक्र होता है। प्रत्येक काल के छह-छह आरे हैं। कालचक्र के कुल बारह आरे हैं। यहाँ पहले अवसर्पिणीकाल के छह आरों का विवरण दिया जाता है: (१) सुखमा-सुखमा-अवसर्पिणीकाल के पहले सुखमा-सुखमा आरे में मनुष्यों के शरीर की अवगाहना तीन कोस की होती है। आयु तीन पल्योपम की होती है। मनुष्यों के शरीर में २५६ पसलियाँ होती हैं और और वे वज्रऋषभनाराचसंहनन तथा समचतुरस्त्र संस्थान के धारक होते हैं। महारूपान् और सरल स्वभाव वाले होते हैं। एक साथ स्त्री और पुरुष का जोड़ा उत्पन्न होता है। उनकी इच्छाएँ दस प्रकार के कल्पवृक्षों से पूर्ण होती हैं। दस प्रकार के कल्पवृक्षों के नाम यह हैं :-(१) 'मतंग' वृक्ष से मधुर फल प्राप्त होते हैं (२) 'भिंगा' वृक्ष से सुवर्ण-रत्न के बर्तन मिलते हैं (३) 'तुडियंगा' वृक्ष ४६ प्रकार के मनोहर वादित्र प्रदान करता है (४) 'ज्योति' वृक्ष रात्रि में सूर्य के समान प्रकाश करता है (५) 'दीप' वृक्ष दीपक के समान प्रकाश करता है (६) 'चित्तंगा' वृक्ष से सुगंधित फूलों के भूषण प्राप्त होते हैं (७) 'चित्तरसा' वृक्ष से १८ प्रकार का भोजन मिलता है (८) 'मनोगा' वृक्ष से सुवर्ण-रत्नमय आभूषण मिलते हैं (8) 'गिहंगारा' वृक्ष ४२ मंजिल के महल जैसे हो जाते हैं (१०) 'अणियगणा' वृक्ष से उत्तम-उत्तम वस्त्र प्राप्त होते हैं। प्रथम आरे के मनुष्यों को आहार की इच्छा तीन-तीन दिन के अन्तर से होती है। तब अपने शरीर के परिमाण में,* कल्पवृक्ष के फल एवं मृत्तिका आदि का आहार करते हैं। उस समय की मिट्टी का स्वाद मिश्री के समान मीठा होता है। पहले आरे के स्त्री-पुरुष की आयु जब छह महीना * युगलिया मनुष्य पहले आरे में तुअर (अरहर) के दाने के बराबर, दूसरे आरे में घेर बराबर और तीसरे आरे में चिले के बराबर श्राहार करते हैं। ऐसा ग्रंशकार रहते हैं।
SR No.010014
Book TitleJain Tattva Prakash
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmolakrushi Maharaj
PublisherAmol Jain Gyanalaya
Publication Year1954
Total Pages887
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size96 MB
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