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पुरुषार्थ सिद्धि उपाय : आचार्य अमत चंद्र स्वामी पुरुषार्थ देशना : परम पूज्य आचार्य श्री १०८ विशुद्ध सागरजी महाराज Page 95 of 583 ISBN # 81-7628-131-3 -2010:002
को समझ नहीं पाता है कि पुष्प में कितनी सुगंध है, क्योंकि वह पंखुड़ी को पकड़े हुये हैं भो मुमुक्षु आत्माओ! यह पंखुड़ी का धर्म नहीं, यह वीतरागी हृदय-कमल को विकसित करने वाला धर्म हैं जिसका हृदय-कमल खिला होता है, जिसका हृदय विशाल होता है, उसके ही हृदय में परमेश्वर की प्रतिमा विराजमान होती हैं जिसके हृदय में विष होता है अर्थात् जिसका हृदय संकुचित होता है, उसकी मानवता मर जाती हैं क्योंकि मेरा-तेरा शब्द कमल-पंखुड़ियों में ही होता हैं
भो चेतन आत्माओ! सर्वदर्शी बनना चाहते हो तो पहले समदृष्टित्व को लाओं सम्यकदृष्टि बनोगे तभी सर्वांग-दृष्टि पाओगें जब तक समदृष्टि नहीं, तब तक सम्यकदृष्टि भी नहीं है तथा सम्यकदृष्टि नहीं है तो सर्वदृष्टि भी नहीं हैं इसलिये आचार्य अमृतचंद्र स्वामी कह रहे हैं कि विशालता हासिल करो, आप सामर्थ्य जुटाओ, मेहनत करों निगोद से यहाँ तक आ गये हो, अब तुम्हारे पास बुद्धि, विवेक, आचार-विचार सभी कुछ हैं तुम पीछे क्यों हटते हो? थोड़ी सी मेहनत कर लों बस, दृष्टि को धो लों ध्यान से समझना, जब एक व्यक्ति को एक पदार्थ के दो दिखें, समलो कि अब हमारी आयु अल्प बची हुई है अथवा जिसकी आँख में मिथ्यात्व का कीचड़ है, उन्हें तत्व में दो-पना दिखता है, भगवानों में भेद दिखते हैं, जिनवाणी में दो-पना दिखता है और वीतरागी संतों में दो-पना दिखता हैं परन्तु जिसका कीचड़ निकल जाता है, वह जिनवाणी को जिनवाणी, वीतरागी को वीतरागी, निग्रंथ को निग्रंथ ही देखता हैं अतः, जैन दर्शन कह रहा है कि दृष्टि साफ रखों दृष्टि जितनी साफ होती जाती है, उतना-उतना पानी फैलाना बंद होता जाता हैं इसीलिये दिगम्बर मुनि कभी स्नान करते ही नहीं हैं 'कातंत्र व्याकरण' का श्लोक है
शुचि भूमिगतं तोयं, शुचिर्नारी पतिव्रतां
शुचि धर्मपरो राजा, ब्रह्मचारी सदा शुचिः "जो राजा धर्मपरायण होता है, वह पवित्र होता है; जो पानी भूमि में बहता होता है, वह अपने आप पवित्र होता है; जो नारी पतिव्रता होती है, वह अपने आप में पवित्र होती हैं" पतिव्रता मनोरमा के पैर का अँगूठा लगा कि किले का दरवाजा खुल गयां यह परिणामों की पवित्रता की दृष्टि है; भावों की निर्मलता की दृष्टि हैं अभी तुमने बाहर के आनंद लूटे हैं, अन्दर का आनंद तो विचित्र ही हैं
भो चैतन्य! ब्रह्मचारी को घर में ही रहना चाहियें जो बाहर रहता है, वह व्यभिचारी होता हैं निज-घर ही मेरा घर है, पर-घर मेरा घर नहीं हैं, यह तो यम-घर हैं यहाँ से तो तुझे उठकर ही जाना होगां मनीषियो! यदि निज-घर में चलना है तो तत्त्व की दृष्टि आपके घर की रोटी है कभी भी अपचन नहीं करायेगी, चिन्ता मत करना, बिल्कुल स्वस्थ्य रखेगी वीतरागवाणी ही सर्वांगवाणी है, जो शाश्वतसुख को प्रदान करती हैं इसलिए सम्यक्दृष्टिजीव निःशंक होता हैं निःशंक वही होगा जो निःसंग होगां जरा भी लोभ-लालच
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