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पुरुषार्थ सिद्धि उपाय : आचार्य अमत चंद्र स्वामी पुरुषार्थ देशना : परम पूज्य आचार्य श्री १०८ विशुद्ध सागरजी महाराज Page 94 of 583 ISBN # 81-7628-131-3 -2010:002
यदि अनुकंपा ही नहीं है, तो श्रद्धान कुछ नहीं करेगां अनुकंपा यानि दया, कृपा, करुणां यह सम्यक्त्व का पहला गुण हैं
'भक्तामर स्तोत्र' में आचार्य मानतुंग महाराज कह रहे हैं कि-हे जगदीश! आप जगत के ईश्वर हो, प्राणीमात्र को शरण देनेवाले हो, इसीलिए आप भूतनाथ हों आपका शासन सर्वोदयी शासन है क्योंकि आप पूर्ण प्राणियों को समान शरण देनेवाले हों सम्पूर्ण प्राणियों के लिए समान पूज्यता का उदय करने वाले हो, इसलिए आपका शासन सर्वोदयी है, 'युक्तानुशासन' ग्रंथ में कहा है-हे प्रभु! आपका शासन सर्वोदय-शासन है, जिसमें अनेक प्रवचन सभाएँ होती हैं यह प्रवचन की परम्परा अनादि से चली आ रही हैं अहो! तीर्थंकर की सभा का जो नाम होता है, वह विश्व में किसी सभा का नहीं होता हैं जिसको सुनकर जाति-पाति, पंथ-भेद समाप्त हो जाते हैं, उस सभा का नाम है समवसरण -सभां जिसमें प्राणी मात्र को समान शरण दी जाती है, समान उपदेश दिया जाता है, जहाँ भेद भाव न होता हो, जहाँ सम्पूर्ण जीवों को जीव-दृष्टि से देखा जाता हो, उस सभा का नाम है समवसरण-सभां जिस वृक्ष के नीचे प्रभु विराजे हैं, उस वृक्ष का नाम अशोक वृक्ष होता हैं
भो ज्ञानी! तीर्थकर-सभा में जो आता है, उसके सम्पूर्ण शोक समाप्त हो जाते है; इसीलिए आप अशोक वृक्ष के नीचे विराजते हैं अशोक वृक्ष के नीचे बैठने वाले प्रभु की सभा की वाणी शोक को विगलित करने वाली वाणी हैं इसलिए विश्वकल्याणी-वाणी वीतरागवाणी ही होगी, क्योकि यहाँ किसी हवन/पूजा से नहीं, अपितु सम्यकदर्शन से धर्म की शुरूआत की जा रही हैं सम्यकदर्शन यानि दृष्टि साफ करनां क्योंकि विकार होते हैं तो वासना तन और मन में होती हैं अतः, वासना संयोग में नहीं, वासना वियोग में नहीं, वासना तेरे विमोह में यानि मोह-दृष्टि में हैं
भो ज्ञानी! दृष्टि विशाल करों परिणामों में जितनी विशुद्धि होती है, उतना ही धर्म होता हैं इसलिए हमारे आचार्यों ने क्षपणासार, लब्धिसार ग्रंथ परिणामों के मापने के लिए लिखे हैं जिस दिन आपने अपने परिणाम माप लिये, उस दिन अन्य कुछ भी मापने की आवश्यकता नहीं आचार्य अमृतचन्द्र स्वामी की दृष्टि तो देखो कि श्रावकाचार में पूरी द्रव्यदृष्टि की बात कह रहे हैं: वस्त्रों का धोना धर्म नहीं तन को धोना धर्म नहीं, दृष्टि को निर्मल करना ही धर्म है, दृष्टि को धोना ही धर्म हैं जिसकी दृष्टि पवित्र है, वह परम पवित्र हैं जिसकी दृष्टि पवित्र नहीं है, वह चाहे गंगा में डुबकी लगा ले चाहे क्षीरसागर में, मगर वह पवित्र नहीं है, उसमें विशालता नहीं हैं क्योंकि संकुचित हृदयी कभी भी धर्म की विशालता में प्रवेश नहीं कर सकतां संकुचितता में तो घाट दिखते हैं, जबकि विशालता में कुआँ नजर आता हैं भो मनीषियो! जिनवाणी किसी भी मुख से आ रही हो, तुम मुख को मत देखना, तुम तो वीतरागवाणी को देखनां घाटों को देखोगे तो प्यासे रह जाओगें सम्यकदृष्टि कमल की पंखुड़ी को नहीं, कमल के पुष्पों को देखता हैं पंखुड़ी को देखने वाला पुष्पों
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