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पुरुषार्थ सिद्धि उपाय : आचार्य अमत चंद्र स्वामी पुरुषार्थ देशना : परम पूज्य आचार्य श्री १०८ विशुद्ध सागरजी महाराज Page 71 of 583 ISBN # 81-7628-131-3 -2010:002
को प्राप्त हो जाते हैं अतः,निज जाति धर्म का ज्ञान होना अनिवार्य हैं जब तक शूद्र-गृह-पोषित ब्राह्मण-सुत को निज जाति का ज्ञान नहीं होता, तब तक वह अपने को शूद्र-पुत्र ही मानता है, परंतु निज कुल का ज्ञान होते ही उसकी अवस्था शीघ्र ही परिवर्तित हो जाती हैं उसी प्रकार यह जीव शूद्र-स्थानी देह में जन्मा है, अज्ञानता से उसे ही निज स्वभाव मान बैठा हैं पूर्णरूपेण शरीर में ही आत्मबुद्धि होने के कारण आत्मा के कष्ट का विचार नहीं कर पा रहां अतः, जीव के द्वारा शरीर के कष्टों को दूर करने के प्रयास ही हो रहे हैं, जबकि आत्मा के कष्ट दूर होते ही शरीर के कष्ट स्वयमेव दूर चले जायेंगें
भो ज्ञानी! आचार्यश्री यहाँ पर बहुत ही उपादेयभूत तत्त्व का कथन कर रहे हैं, जिससे अज्ञान एवं अनादि की अविद्या का भ्रम समाप्त हो जाता हैं उसे सर्वप्रथम यह समझना आवश्यक है कि प्रत्येक द्रव्य अपनी-अपनी स्वतंत्र-सत्ता से युक्त है, एक द्रव्य दूसरे द्रव्य के वश में नहीं हैं उपादानदृष्टि से अपनी-अपनी योग्यता के अनुसार ही परिणमन करता हैं धर्मद्रव्य कभी भी अधर्म द्रव्यरूप नहीं होता, कालद्रव्य कभी भी आकाशरूप परिणत नहीं होता, जीव कभी अजीव(पुद्गलादिरूप) नहीं होतां स्वभाव-अपेक्षा से तो वह आत्मा शुद्ध चिद्रूप है, पर-उपाधि से परे है; परंतु व्यवहारनय से संसार-अवस्था में कर्म-सापेक्षता की अपेक्षा नानारूप है,जैसा कि पूर्व में कहा गया कि रागादिक-भाव पुद्गल-कर्म के कारणभूत हैं, जबकि यह आत्मा निज स्वभाव की अपेक्षा नाना प्रकार के कर्मजनित भावों से पृथक् ही चैतन्य-मात्र वस्तु हैं जैसे-लाल रंग के निमित्त से स्फटिक मणि लालरूप दिखाई देती है, यथार्थ में लालस्वरूप नहीं है, रक्तत्त्व तो स्फटिक से अलिप्त ऊपर ही ऊपर की झलक मात्र है और स्फटिक स्वच्छ श्वेतवर्णपने से शोभायमान हैं इस बात को परीक्षक (जौहरी) अच्छी तरह से जानता है, परंतु जो रत्न-परीक्षा की कला से अनभिज्ञ है, वह स्फटिक को रक्तमणि व रक्तस्वरूप ही देखता हैं इसी प्रकार कर्म के निमित्त से आत्मा रागादिकरूप परिणमन करता है, परंतु यथार्थ में रागादिक-भाव आत्मा के निज-भाव नहीं हैं
भो ज्ञानी! आत्मा अपने स्वच्छतारूप चैतन्य-गुण-सहित विराजमान हैं रागादिकपन अथवा स्वरूप विभिन्नता ऊपर ही ऊपर की झलक मात्र हैं इस बात को स्वरूप के परीक्षक (जौहरी ) सच्चे ज्ञानी भलीभाँति
हैं, परंतु अज्ञानी अपरीक्षकों को आत्मा रागादिकरूप प्रतिभासित होता हैं यहाँ पर यदि कोई प्रश्न करे कि पहले जो रागादिक-भाव जीवकृत कहे गये थे, उन्हें अब कर्मकृत क्यों कहते हैं? तो इसका समाधान यह है कि रागादिकभाव चेतनारूप है, इसलिए इनका कर्ता जीव ही है, परंतु श्रद्धान कराने के लिए इस स्थल पर मूलभूत जीव के शुद्ध स्वभाव की अपेक्षा रागादिक भावकर्म के निमित्त से होते हैं, अतएव कर्मकृत हैं जैसे भूत-गृहीत मनुष्य, भूत के निमित्त से नाना प्रकार की जो विपरीत चेष्टायें करता है, उनका कर्ता यदि शोधा जावे तो वह मनुष्य ही निकलेगां परंतु वे विपरीत चेष्टायें उस मनुष्य के निजभाव नहीं हैं, भूतकृत हैं इसी प्रकार यह जीव कर्म के निमित्त से जो नाना प्रकार के विपरीत भावरूप परिणमन करता है, उन भावों का
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