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पुरुषार्थ सिद्धि उपाय : आचार्य अमत चंद्र स्वामी पुरुषार्थ देशना : परम पूज्य आचार्य श्री १०८ विशुद्ध सागरजी महाराज Page 70 of 583 ISBN # 81-7628-131-3 -2010:002
"पुरुषार्थ की सिद्धि का उपाय" एवमयं कर्मकृतैर्भावरसमाहितोऽपि युक्त इवं
प्रतिभाति बालिशानां प्रतिभासः स खलु भवबीजम् 14 अन्वयार्थ :एवम् अयं = इस प्रकार यह (आत्मा) कर्मकृतैः = कर्मों के किए हुएं भावैः = (रागादि या शरीरादि) भावों में असमाहितोऽपि = संयुक्त न होने पर भी बालिशानां = अज्ञानी जीवों कों युक्तः इव = संयुक्त सरीरवां प्रतिभाति = प्रतिभाषित होता है, (और) सः प्रतिभासः खलु = वह प्रतिभास ही निश्चय करके भवबीजम् = संसार का बीजभूत हैं
विपरीताभिनिवेशं निरस्य सम्यग्व्यवस्य निजतत्त्वम्
यत्तस्मादविचलनं स एव पुरुषार्थसिद्धयुपायोऽयम् 15 अन्वयार्थ :विपरीताभिनिवेशं निरस्य = विपरीत श्रद्धान को नष्ट करं निजतत्त्वम् = निजस्वरूप को सम्यक् व्यवस्य = यथावत् जानकरं यत् = जों तस्मात् = उस अपने स्वरूप में अविचलनं = च्युत न होनां स एव अयम् = वह ही यह पुरुषार्थसिद्धयुपायः = पुरुषार्थ की सिद्धि का उपाय हैं
__ भव्य बंधुओ! आज सभी भव्यों का अहोभाग्य है कि सर्वज्ञ-शासन में विराजकर सर्वज्ञदेव की पीयूषवाणी का पान कर रहे हैं क्षीण-पुण्यवाले जीवों को जिनवाणी सुनने के भाव ही नहीं होतें वे तो संसार को वृद्धिगत करनेवाली गोष्ठियों में जाकर बैठेंगे, परंतु निजात्म-तत्त्व की गवेषणा, गोष्ठी में बैठने के परिणाम उनके नहीं होतें यही तो जीव के परिणामों की परीक्षा है कि पुण्य-परिणामी पुण्य-क्षेत्र की ओर दौड़ता है
और पाप-परिणामी पाप-क्षेत्र की ओर जाता हैं अहो, किया भी तो क्या जाय ? विधि का विधान ही ऐसा है, यानि कर्मों का विपाक कर्मानुसार ही होता हैं
आचार्य अमृतचंद्र स्वामी आज अपूर्व चर्चा करने जा रहे हैं वे अनादिकाल की भूल को सुधारने हेतु भव्यों को निर्मल-भाव से सम्बोधन कर निज भूल को सुधारने की प्रेरणा दे रहे हैं कि अन्तर्दृष्टि को विशुद्ध कर लो, क्योंकि बाह्याचरण की निर्मलता होने पर भी अंतरंग की निर्मलता के अभाव में कर्म-निर्जरा नहीं हो पाती अतः तत्त्वनिर्णय विशुद्ध होना चाहिएं जब तक तत्त्वनिर्णय नहीं होगा, तब तक विशुद्धि में वृद्धि नहीं हो पाती जैसे ही जीव का तत्त्व का निर्णय होता है, उस समय सम्पूर्ण भय, आश्चर्य, अरति आदि भाव उपशमता
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