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पुरुषार्थ सिद्धि उपाय : आचार्य अमत चंद्र स्वामी पुरुषार्थ देशना : परम पूज्य आचार्य श्री १०८ विशुद्ध सागरजी महाराज Page 72 of 583 ISBN # 81-7628-131-3 -2010:002
कर्ता यद्यपि जीव ही है; परंतु यह भाव जीव के निजस्वभाव न होने से कर्मकृत कहे जाते हैं, अथवा कर्मकृत नाना प्रकार के पर्याय, वर्ण, गंध, रस, स्पर्श, कर्म, नो कर्म, देव, नारकी, मनुष्य, तिर्यंच, शरीर संहनन, संस्थानादिक भेद एवं पुत्र, मित्रादि, धन, धान्यादि भेदों से शुद्धात्मा प्रत्यक्ष ही भिन्न हैं
भो चेतन! स्वभाव-दृष्टि से विचार करने पर तत्त्वज्ञान सहज प्रकट होता है, तथा वस्तु के अंतरंग स्वभाव का वेदन होना प्रारंभ हो जाता हैं अज्ञानी जीव देह को प्राप्त कर देही को भूल जाते हैं सम्पूर्ण पर्याय के क्षणों को पर्यायदृष्टि में ही लगा देते हैं, द्रव्यदृष्टि पर दृष्टि ही नहीं डालतें अतएव एक बार निजद्रव्य के भूतार्थस्वरूप पर निजदृष्टि को ले जा, अहो ज्ञानियो! मालूम चल जायेगा कि आत्मधर्म स्पर्श, रसादि पुद्गल-धों से अत्यन्त भिन्न हैं चार अभावों में जीव का पुद्गल के साथ अत्यन्ताभाव हैं जीव ज्ञान-दर्शनस्वभावी है, दोनों के गुणों व पर्यायों में विभक्त भाव हैं पुद्गल जड़ है, आत्मा चैतन्य हैं आचार्य भगवन् समझा रहे हैं-यह आत्मा कर्मकृत शरीरादि समाहित न होने पर भी अज्ञानीजीव आत्मा को शरीरादि-युक्त मानते हैं शरीर और आत्मा का संश्लेषरूप संबंध तो है, परन्तु अविनाभाव सम्बंध नहीं हैं अविनाभाव संबंध तो जीव के ज्ञानदर्शन के साथ हैं आत्मा उपयोगमयी चिद्रूप हैं कर्मकृत रागादि भावों को एवं शरीरादि को निजरूप मानना ही अनन्त भवभ्रमण का बीज हैं देह व जीव को एक-रूप मानना ही तो बहिरात्म-भाव हैं बहिरात्मभाव का परित्याग किये बिना अंतरात्मा नहीं होता और अंतरात्मा हुये बिना जीव कभी परमात्मा नहीं बन सकतां भो मुमुक्षु आत्माओ! भव-बीज देह में आत्मदृष्टि का त्याग करो, तभी परम लक्ष्य की प्राप्ति संभव हैं
__ भो ज्ञानी! विपरीत अभिप्राय को बदलना ही तो सम्यकत्व है तथा विपरीत जानकारी को समाप्त कर सम्यक्रूपेण पदार्थ को जानना सम्यज्ञान हैं विपरीताचरण से रहित होना ही तो सम्यक्चारित्र हैं इन तीनों की एकता का नाम ही तो मोक्षमार्ग हैं इनमें से एक के भी अभाव में मोक्षमार्ग की सिद्धि नहीं होती इसलिए, पूर्वकथित पर्यायों में आत्मबुद्धि अथवा सात तत्त्वों से विपरीत तत्त्वों को स्वीकार लेना विपरीत-श्रद्धान हैं उस विपरीतता से रहित सम्यक् निज आत्मस्वरूप को यथावत् जानकर अपने स्वरूप से च्युत न होना, यह पुरुषार्थ-सिद्धि का उपाय हैं उसी उपाय का पुरुषार्थ कर निज पुरुष की प्राप्ति करो, यही मुमुक्षु जीव का लक्ष्य होना चाहिए, शेष अलक्ष्यों से निज की रक्षा करों
जिन ध्वजा
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