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________________ पुरुषार्थ सिद्धि उपाय : आचार्य अमत चंद्र स्वामी पुरुषार्थ देशना : परम पूज्य आचार्य श्री १०८ विशुद्ध सागरजी महाराज Page 548 of 583 ISBN # 81-7628-131-3 -2010:002 रहा हैं हे प्रभु ! आपके समवशरण में मैं आया हूँ, इसीलिए आज मुझे संपत्ति की प्राप्ति हो जाएं अहो मुमुक्षु! तूने पूर्व में भूल की थी सो पंचम काल तक भटक रहा है और आज भी परमेश्वर के चरणों में संसार माँगने आ गया तो और बड़ी भूल कर गयां भो ज्ञानी आत्माओ! एक दिन मैं देख रहा था अरिहंत विहार कालोनी में एक कौए के बच्चे की चोंच में उसकी माँ अपनी चोंच फंसाकर चुगा दे देती हैं अपनी माँ के मुख के भोजन को कौए का बच्चा कब तक खाता है? जब तक उससे चुगते नहीं बनतां अहो मुमुक्षु आत्माओ! इन काले कर्मों का चुनाव तुम कब तक करोगे? पक्षी के बच्चे से चुगते नहीं बनता, इसीलिए माँ के मुख का वमन खाता हैं अब तुम तो बच्चे नहीं बचे, अब तो तुम्हारे पास भेद विज्ञान और ज्ञान ने जन्म ले लिया हैं अब तो तुम स्वयं चुनना सीख गये हों अतः तुम वही चुनो जो चुनने लायक होता हैं अब वह नहीं चुनो जो आज तक चुना हैं जिन कर्मों को तुमने अनादि से चुना, उन कर्मों ने तुझे बार-बार सताया और अब भी तुम उन्हीं कर्मों को चुनने में लगे हों आचार्य अमृतचन्द्र स्वामी कह रहे हैं-अब रतनत्रय को चुन लों भो ज्ञानी! एक सज्जन ने घर में से मरा चूहा उठा कर फैंक दियां उनके मन ने कहा कि आज अभिषेक नहीं करनां दूसरे सज्जन बोले-क्या हुआ? यह तो सामान्य बात होती हैं देखना, जिन्होंने अभिषेक नहीं किया, उन्होंने श्रेष्ठ कियां घर में पंचेन्द्रिय जीव पड़ा था उसे अपने हाथ से उठा कर फेंक दिया, इसलिए अभिषेक नहीं किया, ठीक किया, क्योंकि परिणाम कलुषित थें अरे! कोई व्यक्ति मृतक को छूकर इस फर्श को छू ले और फिर आप उस पर बैठकर अभिषेक कर लोगे? टेन्ट हाऊस से जितने कपड़े आ रहे हैं, फर्श आ रहे हैं, इन पर झाडू कौन लगाता है? अब विवेक से सोचनां पंचम काल में मंदिर और प्रतिष्ठाएँ, पूजाएँ बढ़ी हैं पहले एक स्तोत्र से कुष्ठ निकल गया, परंतु अब आपकी कुंसियाँ ठीक नहीं हो पा रही हैं क्या बात है? स्तोत्र वही है, लेकिन भावना वैसी नहीं हैं तीर्थकर देव के पुण्य का प्रताप आज भी है, आज भी जहाँ भगवान की आराधना प्रारंभ हो जाती है वहाँ भक्त अपने आप पहुँच जाते हैं अतः, स्पष्ट समझना कि पंचम काल में भी आज धर्ममय भावना है और आगे भी रहेगी किसी एक जीव ने कह दिया था कि मुनिराज तो कुष्ठ से ग्रसित हैं लेकिन अपने भगवान् के बारे में कोई कुछ सुन नहीं सकता हैं अतः एक सेठ सम्राट के सामने बोल पड़ा-राजन! मेरे मुनिराज की तो कंचन-जैसी स्वर्णमयी काया चमक रही हैं कौन कहता है कि उनको कुष्ठ है? सुबह दर्शन कर लेनां भक्ति की भावना तो देखो, उसको मालूम ही नहीं था कि मुनिराज नगर में हैं और उनके शरीर में कुष्ठ हो गया हैं परन्तु धर्म पत्नी के मुख से यह सुनने पर वह विह्वल हो गयां वह दौड़कर पहुँचता है, विनती करता है-हे प्रभु! मुझे मालूम है कि आप इस देह के ममत्व से परे हो, विनिर्युक्त हो, असंयुक्त हो, लेकिन मुझे विश्वास है कि आप तीव्र ममत्वशाली हों यह शब्द सुनते ही आचार्य Visit us at http://www.vishuddhasagar.com Copy and All rights reserved by www.vishuddhasagar.com For more info please contact : akshayakumar_jain@yahoo.com or pkjainwater@yahoo.com
SR No.009999
Book TitlePurusharth Siddhi Upay
Original Sutra AuthorAmrutchandracharya
AuthorVishuddhsagar
PublisherVishuddhsagar
Publication Year
Total Pages584
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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