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पुरुषार्थ सिद्धि उपाय : आचार्य अमृत चंद्र स्वामी पुरुषार्थ देशना : परम पूज्य आचार्य श्री १०८ विशुद्ध सागरजी महाराज Page 547 of 583 ISBN # 81-7628-131-
3 v-2010:002 "जिनेन्द्र की आराधना : मोक्षमहल की कुंजी"
असमग्रं भावयतो रत्नत्रयमस्ति कर्मबन्धो यः स विपक्षकृतोऽवश्यं मोक्षोपायो न बन्धनोपाय 211
अन्वयार्थ : असमग्रं = सम्पूर्ण रत्नत्रयम् = रत्नत्रय कों भावयतः = भावन करने वाले पुरुष के यः = जों कर्मबन्धः = शुभकर्म का बंधं अस्ति = हैं सः = वह बंधं विपक्षकृतः = विपक्ष-कृत या बंधरागकृत होने से अवश्यं = अवश्य ही मोक्षोपायः =मोक्ष का उपाय हैं बन्धनोपायः न = बंध का उपाय नहीं हैं
आचार्य अमृतचन्द्र स्वामी ने इस सूत्र में संकेत दिया कि सम्यक्-पुरुषार्थ सम्यक्-सिद्धि को प्रदान कराता हैं जहाँ पुरुषार्थ है, वहाँ पुरुष है और पुरुष का अर्थ ही पुरुषार्थ से बना हैं अतः जो श्रेष्ठ कार्य करता हो, वही पौरूष हैं अश्रेष्ठ, असमीचीन कार्यों में प्रवृत्ति जा रही हो तो समझ लेना कि मेरा पुरुष नष्ट हो गया, मनीषियों! जिस जीव का पुण्य क्षीण हो जाता है उसके विचार भी विनशने लगते हैं अच्छी बात भी उसे विपरीत नजर आती है, असंयम की बात में उसे आनंद आता है और संयम की बात उसे शूल सी चुभती हैं ज्ञानियों की बात को ध्यान से सुनने का विचार भी पुण्य से ही मिलता हैं
भो ज्ञानी! पुरुषार्थ-सिद्धयुपाय ग्रंथ में आचार्य अमृतचन्द्र स्वामी कह रहे हैं-रत्नत्रय को भजो तो नियम से रत्नत्रय प्राप्त हो जायेगां भजो यानि भावना करों उस रत्नत्रय का फल बोधि होगा और बोधि के फल से समाधि होगी, उस समाधि का फल परमेश्वर-पद होगां परम्-पारिणामिक भाव का जो ईश्वर होता है उसी का नाम परमेश्वर हैं हमारे आगम में ईश्वर की वंदना नहीं, परमेश्वर की वंदना हैं ईश तो आप भी हों जिस संस्था का जो स्वामी हो, वह उसका ईश हो गयां घर का मुखिया घर का ईश, लोक का मुखिया लोकईशं स्वर्ग में लोकपाल होते हैं, आपके प्रदेश में राज्यपाल होते हैं ध्यान रखना, इन सबसे परे कोई होता है तो परम-पारणामिक भाव होता हैं उस परम–पारिणामिक भाव का जो स्वामी होता है वह सिद्ध परमेश्वर होता है, क्योंकि पूर्णता तो पूर्ण रूप से सिद्धों में ही हैं अरिहंतों में अभी चार कर्म अवशेष हैं अरिहंत-देव जिनकी आप पूजा कर रहे हो, वे परमेश्वर तो हैं, लेकिन परम-परमेश्वर नहीं हैं भो मुमुक्षु आत्माओ! एक सौ अड़तालीस दुष्कर्मों की संगति में तुम तल्लीन हो, फिर भी तुम भूल को भूल नहीं मान रहे हो, यही सबसे बड़ी भूल हैं यदि भूल को भूल मान लेता तो कम से कम भगवान के नजदीक तो आ जातां भूल में ही फूल
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