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पुरुषार्थ सिद्धि उपाय : आचार्य अमत चंद्र स्वामी पुरुषार्थ देशना : परम पूज्य आचार्य श्री १०८ विशुद्ध सागरजी महाराज Page 529 of 583 ISBN # 81-7628-131-3 -2010:002
विषय-कषायों का त्याग ही वास्तविक त्याग हैं बुराइयों का त्याग करना धर्म की सीढ़ी (सोपान) को प्राप्त करना हैं जब तुम्हारे अंतर से संपूर्ण कुत्सित प्रवृत्तियाँ निकल जायेंगी, तब तुम त्याग धर्म की महत्ता को स्वतः ही हासिल कर लोगें हाँ, त्याग या दान करना सर्वोच्च है, किन्तु मान/अभिमान के लिए नहीं आपने बहुत दान दिया, पर मान के लिए, तो वह दान सम्यक नहीं अपितु अहं-पुष्टि हैं एक दान करने के लिए धन कमाता है या कहता है कि पहले धन कमा लूँ फिर दान करूँगा, यह तो ऐसा हुआ कि मुझे स्नान करना है इसलिए कीचड़ में लौट रहा हूँ यह प्रक्रिया अज्ञानता है और वह अज्ञानी है, ज्ञानी नहीं जो तेरे पास है उसका दान करना चाहिएं दान का उद्देष्य लेकर धनार्जन नहीं करना चाहिए
"संयतस्य योग्यं ज्ञानादिदानं त्यागः" आचार्य पूज्यपाद ने 'सर्वार्थसिद्धि' में कहा है कि संयत के योग्य यानी साधु-संतों एवं धर्मात्माओं के योग्य ज्ञानादि के उपकरणों का दान करना त्याग हैं त्याग के लिए राग से रहित होना परमंअनिवार्य हैं संप्रति (वर्तमान) में दान ने कुछ विकृत रूप धारण कर लिया हैं पूर्व में धर्मात्मा दान छुपा कर दिया करते थे, पर आज छपाकर दिया जाता हैं जहाँ आवश्यकता है, वहाँ पर दृष्टि कम जाती है, उस ओर तो ध्यान ही नहीं जाता, किन्तु गलत प्रयोग करने के लिए तैयार हो जाते हैं दान का सदुपयोग होना चाहिए यानी जिस हेतु से दिया जाता है, उसका उपयोग वही होना चाहिएं यानी जो प्राचीन संस्कृति की रक्षा के लिए ही मिलता है, वह नवीनता में नहीं आज आवश्यकता नवीन तीर्थों की उतनी नही है, जितनी कि प्राचीन तीर्थों की सुरक्षा की हैं दान देने के पहले यह भी ध्यान देने की आवश्यकता हैं कि उपयोगिता कहाँ पर हैं मात्र दृश्टि में इतना नहीं कि माला, पटिया कहाँ प्राप्त होगां दान ऐच्छिक फल की अपेक्षा से रहित होना चाहिएं निष्काम, निःकांक्षित भाव से दिया गया दान वट-बीज की तरह वृद्धि को प्राप्त होता हैं आगम में चार प्रकार के दान की चर्चा की गई हैं प्रत्येक दाता का कर्तव्य है कि अनंत चतुष्टय की प्राप्ति के लिए चार प्रकार का दान करते रहना चाहिएं 'आहार-दान' उत्तम, मध्यम, जघन्य संयमी पात्रों को देना चाहिएं जिसने संयमी महान् आत्माओं के लिए आहार दिया, समझो तप दिया है, अभय दिया हैं क्योंकि आहार के बिना जीवन नहीं पचल सकता हैं करुणा के साथ भूखे, गरीब, कारुण्यों, दरिद्रों को सहयोग करना करुणा-दान हैं 'शास्त्र-दान' यानि ज्ञान-दान करना, क्योंकि यह भी अपना एक विशिष्ट महत्व रखता हैं ज्ञान के उपकरण भेंट करना, शास्त्र देना, अध्ययन कार्य हेतु व्यवस्था जुटाना, उत्तम, मध्यम, जघन्य पात्रों के लिए एवं जो छात्र पढ़ना चाहता है, पर आर्थिक कारणों से वंचित है, उसके अध्ययन में बाधा पड़ रही है, और आप समर्थ हैं तो ऐसे छात्रों की सहायता करना मानव-धर्म हैं विद्यालय, पाठशाला आदि का निर्माण कराने में दिया गया दान 'ज्ञानदान' के अंदर ही समाविष्ट हैं जो श्रुतदान करता है, वह केवलज्ञान को प्राप्त करता है और सरस्वती-पुत्र बन जाता हैं अतः इस परमदान में धन का सम्यक उपयोग करना चाहिए
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