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पुरुषार्थ सिद्धि उपाय : आचार्य अमत चंद्र स्वामी पुरुषार्थ देशना : परम पूज्य आचार्य श्री १०८ विशुद्ध सागरजी महाराज Page 530 of 583 ISBN # 81-7628-131-3 -2010:002
"अभयदान' दुःखी/क्लांत प्राणियों की रक्षा करनां यदि किसी के प्राण हरण जैसी स्थिति भी क्यों न आ गई हो उसकी पूर्ण रक्षा करना, निर्भय कर देना एवं उत्तम मध्यम, जघन्य पात्रों को निर्भयता के स्थान पर ठहराना, उन्हें स्थान देना, प्राणीमात्र की रक्षा करना अभयदान है, प्राणदान हैं यह अमूल्य दान हैं
'औषधि दान' साधु संतों को संयम रक्षा हेतु निदोर्ष, अहिंसक औषधि देनां गरीब-अपाहिज आदि के लिए सहयोग करना, औषधालय खुलवाना, मरीजों की आवश्यकतानुसार उचित रस, फल, औषधि आदि के लिए सहयोग करना, यह मानवता हैं भगवान् महावीर स्वामी के संदेश को चरितार्थ करने की आवश्यकता हैं स्वयं सुख से जिएँ एवं अन्य जीवों को जीने दें, उनके जीवन जीने में अहिंसक दृष्टि से सहयोग करना हर मानव का कर्त्तव्य हैं जैसा कष्ट स्वयं अनुभव करता है, वैसा दूसरों के कष्टों को स्वयं अनुभव करने की आवश्यकता हैं
"त्याग-धर्म" सत्त्वेशु-मैत्री का पाठ पढ़ाता है एवं मानव-धर्म की शिक्षा देता हैं हम परस्पर एक-दूसरे का निष्काम भाव से सहयोग करें जो जीव इस प्रकार औषध दान देता है, वह निरोगमय शरीर को प्राप्त करता है, एवं क्रमशः स्वर्ग, मोक्ष सुख को प्राप्त करता हैं अतः ‘कर जन-जन की सेवा, तेरी सेवा नियम से होगी' हे विज्ञ! त्याग-धर्म को अंगीकार कर आत्मा का उत्थान करो, पतित से पावन बनने का यही सुंदर उपाय हैं
"संसार एक स्वप्न
हे चैतन्य! उत्तम आकिंचन्य धर्म निज स्वरूप से संबंध स्थापित करने की ओर इंगित कर रहा है कि, हे प्राणी! आज तक पर को स्व मानता रहा, निज को नहीं पहचानां जहाँ तु नहीं था वहाँ पर अपनी खोज कर रहा हैं कभी निज सुख की खोज शरीर में की, तो कभी खाद्य पदार्थों में या वस्त्राभूषणों में की, लेकिन फिर भी सुखी नहीं बन पायां सच है कि दुःख में सुख कहाँ? यदि संसार के विषय भोगों, कामनाओं में ही सुख-शांती थी, तो फिर योगियों ने योग धारण कर आत्म शरण कयों ली? क्योंकि आत्म-सुख भौतिक पदार्थों में संभव नहीं आत्मसुख आत्मशरण में पहुंचने से ही प्राप्त होगां क्या बाह्य संपदावाले अंत में आँसू बहाके नहीं गए? या उनके जाने पर अन्य के आँसू नहीं गिरे? लेकिन जो आत्मसुखी होता है, वह जाते समय न स्वयं आँसू बहाता है और न वियोग पर अन्य कोई अश्रुपूरित होते हैं, क्योंकि आत्मधर्मी के जाने पर मृत्युमहोत्सव मनाया जाता हैं मृत्युमहोत्सव या समाधि उसी के जीवन में घटती है, जो आकिंचन-स्वभावी होगा यानी जिसके जीवन में आकिंचन्य धर्म साकार हो रहा हैं वीतरागी जैनाचार्यों ने "आकिंचन्य" को परिभाषित करते
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