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पुरुषार्थ सिद्धि उपाय : आचार्य अमत चंद्र स्वामी पुरुषार्थ देशना : परम पूज्य आचार्य श्री १०८ विशुद्ध सागरजी महाराज Page 505 of 583 ISBN # 81-7628-131-3 -2010:002
विनाश के लिए अनशन नाम का तप किया करते हैं जहाँ स्त्री, पुरुष, नपुंसक, पशु आदि का गमनागमन न हो, ऐसे शून्य स्थान पर ब्रह्मचर्य की रक्षा के हेतु, वह निग्रंथ योगी एक करवट से अल्प विश्राम करते हैं रसपरित्याग नाम का तप कह रहा है कि वे षट्रस का भोजन नहीं करते हैं इन्द्रियों की चंचलता के निरोध के लिए जितना शरीर में आवश्यकता है उतना रस लेनां भो ज्ञानी! तुम्हें पता नहीं है कि तुम्हें सबकुछ क्यों लेना पड़ता है? क्योंकि तुम अपने जीवन का 'सबकुछ' रोज खो देते हों उनके पास 'कुछ' है उसका क्या होगा? उस 'कुछ' की रक्षा के लिए तुम्हारा सबकुछ नहीं लेते हैं उनको जितना चाहिए उतना ले लेते हैं, अन्यथा ब्रह्म की रक्षा नहीं होगी इसीलिए षट्रस के त्याग में कोई न कोई रस का त्याग करके चर्या करते हैं कायक्लेश यानि शरीर को कष्ट देना, क्योंकि सल्लेखना के काल में कोई तुम्हारी रक्षा करने वाला नहीं मिलेगा, उसमें परिणाम कलुषित होंगें इसीलिए आचार्य भगवन्तों ने कह दिया कि तुम शरीर को कष्टसहिष्णु बना दो, दुःखों से भावित करो और दुःखों से भावित करके चलोगे तो दुःख आने पर तुम दुःखित नहीं होगें जिसने अपने शरीर को सुखिया बना लिया है उसे जरा-सा दुःख आयेगा तो उनको सुखिया दिनों की यादें आयेंगीं भो ज्ञानी! अपने जीवन को पहले से दुःखों से भावित करके चलों "वृत्ति परिसंख्यान" यानि नियम लेकर निकलना, आखड़ी जो मन में आकर खड़ी हो गई, वो आखड़ी राग-द्वेष की निवृत्ति के लिए, भाग्य की परीक्षा के लिए और भोजन से निर्ममत्व-भाव रखने के लिए मुनि-महाराज वृत्ति-परिसंख्यान नियम लेकर निकलते हैं कि अमुक गली, अमुक मोहल्ला, यहाँ तक भी नियम हो सकता है कि अमुक दाता आहार देगा तो आहार लेंगें मालूम चला कि वह दाता विदिशा के बाहर था, तो उपवास कर लियां इस प्रकार से छ: प्रकार का तप नित्य ही सेवन करने योग्य हैं यह भी नियम होता है कि केवल एक गृह में प्रवेश करेंगे और उस घर में प्रवेश करने के बाद कोई विध्न आ गया तो उपवासं माना कि उस घर से किसी कारणवश निकलना पड़ा तो ठीक है, नियम है कि आज तो मैं एक घर में ही प्रवेश करूँगा, दूसरे गृह में नहीं जाऊँगां ठीक है, लाभान्तराय हो गया, अलाभ हो गयां इस प्रकार छ: प्रकार के बहिरंग तप हैं आचार्य-परमेष्ठी ऐसे तपों को तपते हैं, अपनी आत्मा को जाज्वल्यमान करते हैं ध्यान रखना, कुछ लोगों के मन में प्रश्न आ रहे होंगे कि जन्मजयंती तो ठीक है, पर संयम दिवस भी मनाना चाहिएं जन्मदिन तो रागात्मक है और पंचम काल में जन्म लेने वाले जीव सभी जन्म से मिथ्यात्व के साथ आते हैं इसीलिए मुनियों को, आचार्यों को तो जन्मजयंती कदापि नहीं मनाना चाहिएं परन्तु आप उनकी इस जन्मजयंती का उद्देश्य, उनके उपकारों का उद्देश्य समझो कि उस आत्मा ने अपने दीक्षा दिवस पर एक योगी के रूप में जन्म लिया है और उन्होंने अपने जीवन को संस्कारों से संस्कारित किया हैं इसीलिए हम उसे संयम के रूप में ही निहारें और उनके गुणों पर ही दृष्टिपात करें, क्योंकि यदि उस योगी का जन्म ही नहीं होता, तो आज संयम को धारण करने वाला कौन होता? आज के दिन इतना विशेष ध्यान रखना'
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