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पुरुषार्थ सिद्धि उपाय : आचार्य अमत चंद्र स्वामी पुरुषार्थ देशना : परम पूज्य आचार्य श्री १०८ विशुद्ध सागरजी महाराज Page 506 of 583 ISBN # 81-7628-131-3 -2010:002
"चमकना है तो तपो" विनयो वैयावृत्त्यं प्रायश्चित्तं तथैव चोत्सर्गः स्वाध्यायोऽथ ध्यानं भवति निषेव्यं तपोऽन्तरङ्गमिति 199
अन्वयार्थ : विनयः = विनयं वैयावृत्त्यं = वैयावृत्यं प्रायश्चित्तं = प्रायश्चितं तथैव च = और वैसे ही उत्सर्गः = उत्सर्ग, (शरीर में ममत्व का त्याग करना) स्वाध्याय := स्वाध्यायं अथ ध्यानं = पश्चात् ध्यानं एकाग्र चित्त होकर आत्मा का ध्यान करना इति = इस प्रकारं अन्तरङ्गम् तपः = अन्तरंग तपं निषेव्यं = सेवन करने योग्यं भवति = होते हैं
जिनपुङ्गवप्रवचने मुनीश्वराणां यदुक्तमाचरणम सुनिरूप्य निजां पदवीं शक्ति च निषेव्यमेतदपिं 200
अन्वयार्थ : जिनपुङ्गव प्रवचने = जिनेश्वर के सिद्धांत में मुनीश्वराणां = मुनीश्वर अर्थात् सकलव्रतियों कां यत् = जों आचरणम् = आचरणं उक्तम् = कहा है, सों एतत् = यहं अपि = भी (गृहस्थों कों) निजां = अपनी पदवीं = पदवीं च = और शक्ति = शक्ति को सुनिरूप्य = भले प्रकार विचार करके निषेव्यम् = सेवन करने योग्य
कहा हैं
भो भव्यात्माओ! जो दूसरे की वस्तु को उठा रहा है, उसे तो सब चोर कहते हैं, लेकिन जो निजात्मा की शक्ति को छुपा रहा है, उसे जैनशासन में चोर कहा जाता हैं करने की सामर्थ्य रखता है, फिर भी संयम से विमुख है-ऐसे व्यक्ति के लिए भगवन् अमृतचन्द्रस्वामी कह रहे हैं कि निज शक्ति को छिपा कर बैठा हुआ है, अहो! जबकि तृतीय नरक में जाने की सामर्थ्य रखता है, और आठवें स्वर्ग में भी जाने की सामर्थ्य रखता
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