SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 503
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ पुरुषार्थ सिद्धि उपाय : आचार्य अमृत चंद्र स्वामी पुरुषार्थ देशना : परम पूज्य आचार्य श्री १०८ विशुद्ध सागरजी महाराज Page 503 of 583 ISBN # 81-7628-131- 3 v-2010:002 "तप के भेद" अनशनमवमौदर्य विविक्तशय्यासनं रसत्यागः कायक्लेशो वृत्तेः संख्या च निषेव्यमिति तपो बाह्यम् 198 अन्वयार्थ : अनशनम् = अनशनं अवमौदर्य = ऊनोदरं विविक्तशय्यासनं = विविक्त शय्यासनं रसत्यागः = रसपरित्यागं कायक्लेशः = कायक्लेशं च = औरं वृत्तेः संख्या =वृत्ति की संख्यां इति =इस प्रकारं बाह्यं तपः =वाह्य तपं निषेव्यम् = सेवन करने योग्य हैं आचार्य भगवान् अमृतचन्द्रस्वामी ने अलौकिक सूत्र प्रदान किया है कि जिन-शासन की प्रभावना के लिए और आत्मत्व की प्रभावना के लिए निज वीर्य को न छिपा कर, निज स्वभाव को निर्मल करने के लिए तपाया जाता है, उसे तप कहा हैं मुनियों के उत्तर गुणों में और आचार्यों के मूलगुणों में ये बारह प्रकार के तप होते हैं जैसे मुनियों को अट्ठाईस मूलगुण अनिवार्य हैं, वैसे ही आचार्य परमेष्ठी को बारह तप अनिवार्य हैं पहले आचार नहीं बनते, पहले विचार बनते हैं जिसके विचार होते हैं, वह आचरण को स्वीकार करता हैं विचारों की निर्मलता ही आचरण को जन्म देती हैं आचरण ही आचायरत्व को जन्म देता हैं अतः आचार महान नहीं, वे विचार महान थें निर्मल आचरण ने आचार्यरत्व को प्रदान किया हैं मुमुक्षु अपनी साधना में तप को अंग बना लेता हैं यह मत सोचना कि कोई भी आचार्य इसलिए महान हैं क्योंकि उन्होंने बहुत सारी दीक्षा दी हैं, बहुत अच्छे ग्रंथों का सृजन किया हैं दिगम्बर संतों को कभी शास्त्रों से नापना भी नहीं, प्रवचन की शैली से भी नापना नहीं, अन्यथा उन्हें बहुत ओछे कर दोगें बहुत सारी भीड़ लगाये हैं इससे भी वे महान नहीं जैन दर्शन में महान उन्हें कहा जाता है जिसने इच्छाओं का निरोध कर लिया हैं जिसने दीक्षा दी, उसको लोग नहीं जानते, पर जिसने दीक्षा ली है वह इतना पहचानवान हो गयां कालीदास के बाद संस्कृत की प्रौढ़ भाषा लिखी सिर्फ ज्ञानसागर मुनिराज में फिर भी वह ग्रंथ से इतने महान नहीं बन पाए, लोग उनको नहीं पहचान Visit us at http://www.vishuddhasagar.com Copy and All rights reserved by www.vishuddhasagar.com For more info please contact : akshayakumar_jain@yahoo.com or pkjainwater@yahoo.com
SR No.009999
Book TitlePurusharth Siddhi Upay
Original Sutra AuthorAmrutchandracharya
AuthorVishuddhsagar
PublisherVishuddhsagar
Publication Year
Total Pages584
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy