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पुरुषार्थ सिद्धि उपाय : आचार्य अमत चंद्र स्वामी पुरुषार्थ देशना : परम पूज्य आचार्य श्री १०८ विशुद्ध सागरजी महाराज Page 5 of 583 ISBN # 81-7628-131-3 -2010:002
पुरुषार्थसिद्धयुपाय
के रचनाकार अमृतचंद्राचार्य आचार्य अमृतचंद्र का समय ईसा की दसवीं शताब्दी का उत्तरार्ध माना जाता है यह वह समय है जब संस्कृत भाषा का विकास अपनी चरम सीमा पर था अध्यात्मरस से ओत-प्रोत अमृतचंद्र की रचनाएँ संस्कृत भाषा की बेजोड़ रचनाएं है यह एक ऐसा व्यक्तित्व था जिसे किसी भी प्रकार का अभिमान नहीं था पुरुषार्थसिद्धयुपाय ग्रन्थ की रचना के अन्त में वे कहते हैं कि “तरह-तरह के वर्षों के पद बन गये, पदों से वाक्य बन गये, और वाक्यों से पवित्र ग्रन्थ बन गया, मैंने तो कुछ भी नहीं किया" वास्तव में अमृतचंद्रसूरि भगवान महावीर एवं आचार्य कुन्दकुन्द के समर्पित अनुगामी थें केवल इतना ही नहीं प्रायः सभी अध्यात्म ग्रन्थों के विशद एवं गूढ़ रहस्यों का उद्घाटन करते हुये उन्होंने कभी भी उनके कर्तृत्व का श्रेय अपने ऊपर नहीं लिया इसी कारण अमृतचंद्र सूरि का जीवन परिचय, गुरू, निवासस्थल एवं समय आदि का उल्लेख नहीं मिलतां पंडित आशाधर जी ने अनगार-धर्मामृत की टीका में आपको "ठक्कुर" शब्द से सम्बोधित किया है, इससे शायद ठाकुर वंश से सम्बंधित रहे हों इनकी कृतियाँ, परिस्थितिजन्य प्रमाणों एवं विद्वानों के मतानुसार उनका समय विक्रम की दसवीं शताब्दी अथवा संवत् 962 निश्चित होता हैं जर्मन विद्वान डॉ. विंटरनिटज ने पीटरसन रिपोर्ट के अनुसार पुरुषार्थसिद्धयुपाय इस कृति को विक्रम संवत् 961 (ई.स. 904) की रचना माना है.
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