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पुरुषार्थ सिद्धि उपाय : आचार्य अमत चंद्र स्वामी पुरुषार्थ देशना : परम पूज्य आचार्य श्री १०८ विशुद्ध सागरजी महाराज Page 442 of 583 ISBN # 81-7628-131-3 -2010:002
क्षेत्रों में जाता हैं घर में ऐसी संतान ने जन्म ले लिया कि जन्म से उसका उपचार कराना प्रारंभ करना पड़ा ध्यान रखना, यह उस संतान का ही पाप-उदय नहीं है, माता-पिता के भी पाप का उदय हैं
भो ज्ञानी! एक सज्जन भिलाई में नारियल बेचते थें उनने कहा-महाराज जी! वह दिन मुझे याद है, जब मैं इस धर्मशाला में आया थां चार दिन बाद मुझे निकाल दिया गया था, तो नारियल बेचना प्रारंभ किया, लेकिन मंदिर जाता थां यहाँ कोई बाहर का सेठ आया, कहा कि, भैया! देखो आपके यहाँ यदि एक आँख वाला नारियल मिल जाए तो हमें बताना, हम आपको मुँह माँगा पैसा देंगें नारियल बेचने वाला बेचने से पहले आँख देख लेता थां भाग्य का उदय, उसे एक दिन एक आँख वाला नारियल मिल गया और उन सज्जन ने उनको पंद्रह हजार रुपये दे दियें आज उस व्यक्ति की यह स्थिति है कि साल में दो-चार लाख रुपये का दान जब तक न दे दे, तब तक उसे शांति नहीं मिलती भो ज्ञानी! साता का असाता, में और असाता का साता में कर्म का संक्रमण श्रावकों के भी हो जाता हैं श्रीपाल श्रावक ही तो थे कुष्ठ रोग हो गयां भगवान की आराधना की असाता सातारू संक्रमित हो गयीं कर्म का विपाक संतों या श्रावकों को ही नहीं, तीर्थंकरों को भी नहीं छोड़ेगां आदिनाथ स्वामी से पूछो कि आपने ऐसा बंध कर लिया कि तीर्थंकर बनकर भी आपको भोगना पड़ा
मनीषियो! आचार्य भगवन् ने बड़ा सहज कथन कर दियां यह रूढ़ी का धर्म नहीं; विवेक, विज्ञान का धर्म हैं द्रव्य ज्यादा है तो कुएँ में पटकने को नहीं हैं कुपात्र को, अपात्र को दिया गया दान कुभोग-भूमि का ही हेतु हैं भो ज्ञानी आत्मा ! धन का दान तो देना, परंतु स्थान को देख लेनां यदि आप पात्र को दान दे रहे हो, तो ऐसा द्रव्य मत देना जिससे राग बढ़ें पिच्छी, कमंडल और जिनवाणी ये तीन उपकरण माने जाते हैं निग्रंथों के-ज्ञान-उपकरण, शौच-उपकरण और संयम-उपकरणं तो पात्र को वही वस्तु दान में दें जिससे दुख व भय न हो, असंयम न हो, मादकता न बढ़ें उनकी तपस्या व स्वाध्याय में वृद्धि का कारण बने, ऐसा ही द्रव्य देनां पात्र तीन प्रकार के कहे गए हैं, जो मोक्ष के कारण भूत हैं अविरत सम्यकदृष्टि, देशव्रती, महाव्रती-ये तीन प्रकार के पात्र जिन आगम में कहे हैं, चौथे प्रकार के पात्र की चर्चा नहीं हैं आचार्य भगवन कंदकंद देव ने ग्रंथराज 'अष्टपाहड' में मात्र तीन लिंगों की वंदना का व्याख्यान कियां पहला निग्रंथ-लिंग, दूसरा गृहीलिंग यानि एलक, क्षुल्लक और तीसरा आर्यिका-लिंग, यह तीन ही हमारे आगम में पूज्य हैं अतिथि–सत्कार में दान अवश्य करना चाहिएं दान देने से लोभ का अभाव हो जाता है और लोभ हिंसा की पर्याय हैं इसलिए दान देना भी अहिंसा है और दान नहीं देना हिंसा हैं अपने जीवन में अहिंसा-धर्म की ओर
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