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पुरुषार्थ सिद्धि उपाय : आचार्य अमत चंद्र स्वामी पुरुषार्थ देशना : परम पूज्य आचार्य श्री १०८ विशुद्ध सागरजी महाराज Page 441 of 583 ISBN # 81-7628-131-3 -2010:002
भो ज्ञानी! सम्यकदृष्टि जीव दया-वृत्ति रखता है और जब पात्र को देता है तो प्रमुदित हो जाता हैं गरीब है, दे दों जब कर (टैक्स) भरने जाते हो तब विशुद्धि नहीं थी, गद्गद-भाव नहीं थां उत्कृष्ट द्रव्य रखा है व्यक्ति के पास, फिर भी क्या कहता है? और लो, महाराज! और ले लों वहाँ उसे लोभ नहीं आतां जब एक माँ अपने बालक को खिलाती है तो कहती है कि बेटा! यह कल ले लेनां लेकिन जब पात्र को दान देती है तो यह कभी नहीं कहती कि कल ले लेनां वह तो कहती है महाराजश्री! इतने दिन में मौका मिला हैं यह भाव ही उसके असंख्यात गुण श्रेणी कर्म निर्जरा करा देते हैं देने-लेने में कोई निर्जरा नहीं होतीं यदि देने से विशुद्धि बनती होती तो कर (टैक्स) भरने में भी विशुद्धि बनतीं एक जीव पूजा कर रहा है, तो वहाँ विशुद्धि बनती हैं एक से कहा जा रहा कि आपका नंबर कल है, तो उसको थोड़ा भार-सा मालूम होतां अहो ! किसी व्यक्ति को धर्म के लिए उत्साहित तो करना, पर उसको बांधना मतं उससे भार महसूस होता है, विशुद्धि के स्थान पर संक्लेशता का वेदन होता हैं एक व्यक्ति दान देते-देते बंध रहा है और एक जीव दान देते-देते छूट रहा है, क्योंकि उसके भाव आ गये कि नगर में मुझे ही देना पड़ता हैं क्या करूँ ? नहीं दूंगा तो व्यवस्था नहीं बनेगी एक जीव जाँच रहा है और एक देख रहा हैं परंतु देखने वाला तो कर्म की निर्जरा कर रहा है, क्योंकि बेचारा सोचता है कि, प्रभु ! मेरी सामर्थ्य होती तो मैं भी दान करके अभिषेक कर लेतां पता नहीं मैंने कौन से अशुभ कर्म किये होंगे जो कि मनुष्य पर्याय मिली, उच्च जैन कुल मिला, भाव भी हैं, पर मेरे पास द्रव्य नहीं हैं जरूर मैंने पूर्व में ऐसे कोई दुष्कर्म किये, जिससे मैं तड़प रहा हूँ , निहार रहा हूँ
भो चैतन्य! जब तक शरीर निर्मल है, तब तक सब कुछ 'मूलाचार' जी में लिखा है:
अतिबाला अतिवुड्ढा, धासत्ती गम्भिणी य अंधलियां अंतरिदा व णिसण्णा, उच्चस्था अहव णीचत्था 469
जो अति वृद्ध, रोगी, अंगहीन, अति मूढ़ हैं, उनसे आहार नहीं लेनां मैं तो यही सोच रहा था कि, प्रभु! उसकी बुद्धि को तो हरण किया ही, लेकिन उसके द्वारा धर्म को भी खींच लियां हाथ-पैर टूट गए, अपाहिज है तो नहीं कर सकता अभिषेक, नहीं दे सकता पात्र को दानं शरीर में कोई दाग हो गया, कोई कुष्ठ हो गया, खाँसी-जुखाम हो गया तो नहीं कर पा रहा अभिषेकं मनीषियो! उसे मनुष्य मत कहना, जिसके जीवन में स्वदार संतोष व्रत नहीं हैं अब देखो, कैसे-कैसे आपको राग से हटा रहे हैं राग से जो तुम्हारा असीम राग था, उसको सीमा में कर दियां परिग्रह बढ़ाने की लिप्सा बढ़ी, तो कह दिया कि शुभ पात्रों को दान करों सम्यकदृष्टि जीव का धन समीचीन क्षेत्रों में जाता है और जिनके पास दुष्कर्म का धन होता है, वो असमीचीन
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