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पुरुषार्थ सिद्धि उपाय : आचार्य अमृत चंद्र स्वामी पुरुषार्थ देशना : परम पूज्य आचार्य श्री १०८ विशुद्ध सागरजी महाराज Page 440 of 583 ISBN # 81-7628-131-
3 v-2010:002 भो मनीषियो! अंतिम तीर्थेश भगवान वर्द्धमान स्वामी की पावन-पीयूष देशना हम सभी सुन रहे हैं आचार्य भगवन् अमृतचंद्रस्वामी ने जीव को राग से मुक्त होने का अपूर्व सूत्र दिया कि 'त्याग धर्म को स्वीकार कर लों जो अनावश्यक द्रव्य हो, उनसे दृष्टि हटा लों जो तेरी वस्तु नहीं है, उसे स्वीकार मत करो, और जो तेरी वस्तु है, उसे स्वीकार कर लों' आचार्य भगवान कुंदकुंद देव जी समयसार जी की एक सौ सड़सठवीं गाथा में कह रहे हैं:
भावो रागादिजुदो जीवेण, कदो दु बंधगो होदिं रागादिविप्पमुक्को, अबंधगो जाणगो णवरिं
अहो मुमुक्षु! भाव त्रैकालिक हैं भाव यानि पदार्थ, भाव यानि पर्याय, भाव यानि द्रव्यं जब यह भाव रागादि से युक्त होते हैं, तब बंध होता है और जब राग आदि से रहित होते हैं, तब अबंध-दशा होती हैं वह राग कैसे छूटे? अनादि की उस अविद्या की दशा को, अनादि के इस अभ्यास को, एकसाथ छोड़ने में पीड़ा हो रही हैं इसलिए आप छोड़ने का अभ्यास प्रारंभ कर दों यदि द्रव्य सुपात्र में जाता है, तो मोती के रूप में फलित होता है और कुपात्र में जाता है, तो कीचड़ के रूप में फलित होता हैं अतः दान तो देना, लेकिन दाता को देख लेनां देनेयोग्य द्रव्य और देने वाला दाता और जिसको दिया जा रहा है वह पात्रं द्रव्य निर्मल, दाता निर्मल और पात्र निर्मल नहीं है तो परिणमन निर्मल नहीं होगां पात्र निर्मल है, पर देय निर्मल नहीं, दाता निर्मल नहीं, तो परिणमन निर्मल नहीं होगां तीनों का निर्मल होना आवश्यक हैं भो ज्ञानी! जैन आगम में वीतराग धर्म को मानने वाले, वीतराग धर्म पर चलने वाले और सच्चे वीतराग धर्म में लीन होने वाले यह तीन पात्र हैं सच्चे वीतराग धर्म को मानने वाले अविरत सम्यकदृष्टि, देशव्रती और स्वभाव में लीन होने वाले महाव्रती मात्र तीन ही पात्रों का कथन जैनदर्शन में हैं
आचार्य कुंदकुंद देव ने कहा है कि आप राग को छोड़ों नहीं छूट रहा तो राग को छोड़ने का अभ्यास करों पर एक दृष्टि ध्यान में रखो कि जो मिला है, छोडो न छोडो, वह तो छटेगा हीं पर बंध कराके छटे, इसके पहले छोड़ दो, तो निबंध हो जाओगें आप नहीं छोड़ पाएँगे, पर वह आपको छोड़ देगां जीते जी नहीं छोड़ पाए, तो मृत्यु के बाद छूट जाएगां पर जीते जी जो छोड़ लेता हैं वह निबंधता को प्राप्त होता है और जो मरने के बाद छोड़ता हैं वो बंधता को प्राप्त होता हैं बस इतनी दृष्टि समझना हैं जैनदर्शन तो मात्र दृष्टि का धर्म हैं एक दृष्टि 'भीख' दे रही है, एक दृष्टि 'दान' दे रही है, एक दृष्टि 'कर' दे रही हैं एक में विशुद्धि है, एक में दया है, और एक में द्वेष और राग हैं
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