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पुरुषार्थ सिद्धि उपाय : आचार्य अमृत चंद्र स्वामी पुरुषार्थ देशना : परम पूज्य आचार्य श्री १०८ विशुद्ध सागरजी महाराज Page 422 of 583 ISBN # 81-7628-131-
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"न करो भक्षण अभक्ष्य का"
भोगोपभोगमूला विरताविरतस्य नान्यतो हिंसां
अधिगम्य वस्तुतत्त्वं स्वशक्तिमपि तावपि त्याज्यौं 161 अन्वयार्थ : विरताविरतस्य = देशव्रती श्रावक के भोगापभोगमूला = भोग और उपभोग के निमित्त से होने वाली हिंसा = हिंसा होती हैं अन्यतः न = अन्य प्रकार से नहीं होती (अतएव) तौ अपि = वे दोनों अर्थात् भोग और उपभोग भी वस्तुतत्त्वं अपि स्वशक्तिम् = वस्तुस्वरूप को भी अपनी शक्ति को अधिगम्य = जानकर अर्थात् अपनी शक्ति के अनुसारं त्याज्यौ =छोड़ने योग्य हैं
एकमपि प्रजिघांसुर्निहन्त्यनन्तान्यतस्ततोऽवश्यम् करणीयमशेषाणां परिहरणमनन्तकायानाम् 162
अन्वयार्थः ततः = क्योंकि एकम् अपि = एक साधारण देह को अर्थात् कन्दमूलादि को भी प्रजिघांसुः= घातने की इच्छा करने वाला पुरुषं अनन्तानि निहन्ति = अनन्त जीव मारता हैंअतः अशेषाणां = अतएव सम्पूर्ण ही अनन्तकायानाम् = अनन्तकाय कां परिहरणम् अवश्यं करणीयम् = परित्याग अवश्य ही करना चाहिएं
नवनीतं च त्याज्यं योनिस्थानं प्रभूतजीवानाम् यद्वापि पिण्डशुद्धौ विरुद्धमभिधीयते किञ्चित् 163
अन्वयार्थः च प्रभूतजीवानाम् योनिस्थानं = और बहुत जीवों का उत्पत्ति-स्थानरूपं नवनीतं त्याज्यं =मक्खन त्याग करने योग्य हैं वा पिण्डशुद्धौ = अथवा आहार की शुद्धता में यत्किञ्चित् = जो थोड़ा भी विरुद्धम् अभिघीयते = विरुद्ध कहा जाता हैं तत् अपि = वह भी त्याग करने योग्य हैं
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