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पुरुषार्थ सिद्धि उपाय : आचार्य अमत चंद्र स्वामी पुरुषार्थ देशना : परम पूज्य आचार्य श्री १०८ विशुद्ध सागरजी महाराज Page 393 of 583 ISBN # 81-7628-131-3 -2010:002
सामने कैसे झुक सकता हूँ- इस भावना को लेकर न केवल पर्याय को दांव पर लगा दिया, बल्कि पूरे परिणामों को दाँव पर लगाया हैं अनंत भवों की साधना एक मुहूर्त में नष्ट हो चुकी हैं आपने तो अपना जीवन ही दाँव पर लगा दियां भो ज्ञानी! अमृतचंद्र स्वामी कह रहे हैं कि संपूर्ण व्यसनों में पहला व्यसन है 'द्यूत क्रीड़ा' सोचता है कि आज नहीं तो कल जीत जाऊँगा, मालूम चला कि धन गया, कोष गया, घुड़शाला भी गयी, नारी के आभूषण जाने के बाद जब कुछ नहीं दिखा तो अंत में नारी ही दाँव पर लगा दी अब समझना, संयम गया, तप गयां तेरी शील-स्वभावी आत्म–नारी भी तूने दाँव पर लगा दी, तू कंगाल हो गयां ऐसा जुआ खेल रहा है कि युधिष्ठिर को बदनाम किए हों लेकिन आप विचारो कि यह सब तुम्हारे साथ खेलनेवाले जुआरी बैठे हुए हैं तुम्हारा परिवार जुआरियों का अड्डा है, कहता है जो कि अब तुम कमाकर लाओं
भो ज्ञानी आत्माओ! अब जितना द्रव्य बचा है, उस द्रव्य को दाँव पर मत लगा देनां जितना आयुकर्म का द्रव्य बचा है, उतने द्रव्य को आप सम्हाल लो, अन्यथा वह तो जुए में जा रहा हैं अभी मौका हैं युधिष्ठिर सम्हल गए थे तो भगवान् बन गएं मत लगाओ दाँव पर इस पर्याय कों जुआ है तो उसमें भी माया हैं मैं जीत जाऊँ, इस हेतु से कहीं से भी छल-कपट कर लेता हैं
__ भो ज्ञानी! गुणभद्र स्वामी लिख रहे हैं कि सागर कभी स्वच्छ जल से नहीं भरा रहतां वह सभी नदी-नालों के गंदे पानी से भरा हुआ हैं अमृतचंद्र स्वामी ने सामायिक का कथन करने के पहले सप्त व्यसन को रख दिया है कि पहले सप्त व्यसन का त्याग कर दो और इन व्यसनों का सम्राट जुआ हैं जो शौच का नाश करने वाला, सत्ता का नाश करने वाला और माया का घर हैं इसलिए जुए को तुम दूर से ही छोड़ दों भो ज्ञानी! आचार्य महाराज कह रहे हैं कि बिना प्रयोजन के खोटा चिंतवन मत करो, खोटे शास्त्र मत सुनो, पाप-उपदेश मत दो, हिंसा-दान मत दो, प्रमादचर्या मत करों यदि प्रमाद चल रहा है तो वहाँ अहिंसा की बात तो चलती रहेगी, लेकिन अहिंसा की वृत्ति नहीं होगी; क्योंकि मोक्षमार्ग चर्चा/बात का नहीं, वृत्ति का हैं अज्ञानी जीवों ने चर्चा करने मात्र को मोक्षमार्ग मान लिया हैं पंखा खोलकर बैठ जाएँगे, पानी के नल की टोंटी खोल दी तो खुली है, ऐसे लोग भी आप को मिलेंगे जो मंदिर के द्वारे से दस बार निकलेंगे, लेकिन एक बार भी भगवान् को सिर नहीं टेकेंगें क्योंकि कर्म तो टिकने ही नहीं दे रहा हैं राजा श्रेणिक ने तीर्थंकर के समवसरण में बैठकर प्रश्न भी कर लिया, सबकुछ कर लिया, लेकिन सम्मेद शिखर की वंदना नहीं कर सकां क्योंकि नरक आयु का बंध हो चुका था इसलिए दृष्टि को बदल दो तो कर्म बदल जाएँगे और कर्म नहीं बदला तो दृष्टि बदलनेवाली नहीं हैं आयु-बंध यदि निर्मल हो चुका है, तो मरण काल में वह नियम से शांत-भाव होगा, जिसने जीवन भर तीर्थंकर की देशना सुनीं पुरुषार्थ तुम्हारा अशुभ था, इसलिए तो आपको अशुभ कर्म-बंध हुआं
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