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पुरुषार्थ सिद्धि उपाय : आचार्य अमत चंद्र स्वामी पुरुषार्थ देशना : परम पूज्य आचार्य श्री १०८ विशुद्ध सागरजी महाराज Page 370 of 583 ISBN # 81-7628-131-3 -2010:002
हैं-जब तक मन स्थिर नहीं होगा, तब तक तत्त्व अंदर प्रवेश नहीं करेगां जिसके तीनों योग सम्हल जाते हैं, उसका नाम ही योगी होता हैं उसी का नाम योग है, वही ध्यान है, वही साधना हैं यदि तीनों योग नही सम्हले तो, ध्यान नहीं हो सकता हैं अरे! आँखों को बंद करके मुख से "अहा"बोलने से भगवती-आत्मा झलक गई होती तो संसार में पता नहीं कितने जीव ध्यान में लीन हो गये होतें
भो ज्ञानी! यह आँख के खोलने, आँख के बंद करने अथवा मुख से बोलने का विषय नहीं हैं मनीषियो! आत्मानुभूति अवक्तव्य हैं जो 'अहा' आवाज आती है, यह जिनवाणी के प्रति बहुमान की आवाज हो सकती है, पर आत्मानंद की आवाज नहीं हो सकतीं जिनवाणी के प्रति बहुमान आता है तो आवाज सहसा निकलती है, यह तो ठीक है, लेकिन आत्मानंद में बैठा योगी आवाज करता नहीं, आवाज सुनता हैं जो आवाज शब्द, स्पर्श, गंध, वर्ण से रहित होती है, वही आत्मानुभव हैं ध्यान रखना, जब जीव निज के ध्यान में हो तब उसे आप ज्ञान का भी ज्ञान मत कराओं क्योंकि ज्ञान का उद्देश्य ज्ञान नहीं होता, ज्ञान का उद्देश्य ध्यान होता है और ज्ञान के विकल्प में डालकर उसको ध्यान से वंचित कर दिया, उसका संसार बढ़ा दियां
भो ज्ञानी! एक दिन आचार्य धर्मसागर जी के संघ का परिचय पढ़ रहा थां किसी विद्वान् ने लिखा था कि मैं आचार्य धर्मसागर महाराज जी के दर्शन करने गयां वे कुछ कर ही नहीं रहे थे, न उनके पास पुस्तक थी, न माला थीं पिच्छी रखी थी, कमण्डल रखा था, वह शांत बैठे थे, तो पंडित जी का एकबार मन करता है कि देखो कैसे निठल्ले-से बैठे हैं, इनके पास कोई काम ही नहीं हैं साधु को तो ज्ञान-ध्यान में लीन रहना चाहिएं ना तो कोई पुस्तक रखे हैं, ना कोई कापी रखे हैं, क्यों न उनके पास जाकर ही पूछ लूँ कि आप खाली क्यों बैठे हो? मुनिराज के पास पहुँचे और लोकाचार की दृष्टि से विद्वान् ने उनको नमस्कार/नमोस्तु कियां उन्होंने स्मित-भाव से ऊपर देखा और शांत बैठे रहें विद्वान् का हृदय परिवर्तित हुआ कि चेहरे से लगता नहीं है कि यह निठल्ले बैठे हैं, क्योंकि आवश्यक नहीं कि जब शरीर कुछ करे, तभी कुछ हों यदि शरीर के करने से मोक्ष होता है, तो अयोगकेवली गुणस्थान तो कभी बनेगा ही नहीं इससे पंडितजी स्वयं मुनिराज को पढ़ रहे थे और स्वयं लिख रहे थें साधु ने कुछ कहा नहीं, पर साधु के शरीर के रूप ने, निग्रंथ दशा ने, उनकी पूरी भ्रम की ग्रंथि को खोल दियां फिर पूछते हैं-महाराजश्री! आप क्या कर रहे हैं? मुनिराज सहज बोले थे-कुछ नहीं बोले-आपके पास तो शास्त्र भी नहीं हैं महाराज! हमने सुना है कि साधु ज्ञान-ध्यान में लीन होते हैं, फिर भी आप ग्रन्थ नहीं रखते? बोले-पंडित जी ! मैंने ग्रन्थों के अभ्यास के बाद ऐसा महसूस किया कि जब तक निर्ग्रन्थ में भी ग्रन्थ रहे, तब तक निग्रंन्थ का आनंद नहीं आतां ओहो! मैंने बाहरी ग्रंथि को तो बहत दिन पहले छोड़ दियां यहाँ बैठा मैं अनुभव कर रहा हूँ कि ग्रन्थों का पठन कब छटे और ग्रंथों की ग्रंथि छूट गई तो मैं सच्चा निग्रंथ बन गयां विद्वान् तुरंत लिखता है कि सम्पूर्ण दृष्टियों की अनुभूति तो बहुत लेकर आये थे, कोई समयसार का ज्ञाता था, जीवकाण्ड व धवला तक के ज्ञाता थे वहाँ,
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