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पुरुषार्थ सिद्धि उपाय : आचार्य अमत चंद्र स्वामी पुरुषार्थ देशना : परम पूज्य आचार्य श्री १०८ विशुद्ध सागरजी महाराज Page 369 of 583 ISBN # 81-7628-131-3 -2010:002
और भूत के पुण्य में तुम इठलाकर भविष्य में पाप का बंध करते हों भक्ष्य-अभक्ष्य सेवन किया, रात्रि में सेवन किया, यदि कोई जीव अंदर चला गया, और डाक्टर ने कहा कि एक लाख रूपया जमा करो, फिर महसूस होता है कि मेरी इतनी कीमत थीं अरे नर! तेरी इतनी कीमत है अभी तुझे मालूम नहीं जिस समय भगवान् आदिनाथ स्वामी जैनेश्वरी-दीक्षा लेने जा रहे थे, उस दिन मनुष्यों ने कहा कि जिनदेव की पालकी हम उठाएँगे, देवों ने कहा कि जिनदेव की पालकी हम उठाएँगें निर्णय कौन करे ? तब आदीश्वर स्वामी कहने लगे कि मेरी पालकी उठाने का अधिकार उसे है, जो मेरे साथ संयम स्वीकार करें उस दिन देवों को भी पता चल गया था कि मनुष्य-पर्याय कितनी महान हैं सौधर्म इन्द्र कहता है कि, हे मानवो! मेरे सम्पूर्ण सुख की अनुभूति आप स्वीकार कर लो और एक क्षण के लिए मनुष्य-पर्याय मुझे दे दो, क्योंकि मेरे पास सब कुछ है, पर संयम नाम की वस्तु मेरे पास नहीं हैं
मनीषियो! आत्मसुख निज में ही संयम से प्रकट किया जाता है, वही साधना हैं भो ज्ञानी! आचार्य अमितगति स्वामी ने कहा है कि, अहो! श्रावकों की साधना देखकर कितना आश्चर्य होता कि जितनी तपस्या योगी नहीं कर पाते, उतनी ये लोग कर लेते हैं परंतु कहा भी नहीं जातां अहो गज! तूने सरोवर में डूब-डूबकर स्नान किया और बाहर निकलकर धूल डाल लीं दस दिन तक साधना की, और ग्यारहवें दिन वही राग-द्वेष की धूल ऊपर डाल लीं अरे! स्नान करके ऐसा करो कि फिर धूल पड़े ही नहीं अतः प्रत्येक समय की, प्रत्येक परिणाम की, प्रत्येक पर्याय की, प्रत्येक भाव की आप गणना करना प्रारंभ कर दों कितने शुभ परिणामों का आना हुआ है, कितने अशुभ परिणामों का जाना हुआ? विश्वास रखना, विपरीत परिणति होना बंद हो जायेगी जिस क्षण में विषयों के प्रति लालसा और उन विषयों का भोग तुम कर चुके हो, उतना पुण्य का द्रव्य नष्ट हो चुका हैं जितना द्रव्य तुम्हारे पलड़े में था पुण्य का, वह सारा द्रव्य आपने लगा दिया इन्हीं उपभोग में, और मालूम चला कि आगे के लिए पुण्य का संचय किया नहीं तो उसका परिणाम अधोगति निश्चित हैं
भो ज्ञानी! आचार्य भगवान् अमृतचंद्रस्वामी करुणा-दृष्टि से समझा रहे हैं कि अब तो सम्हल जाओ, अन्यथा तीर्थंकर नहीं सम्हाल पायेंगे, जिनवाणी नहीं संभाल पाएगी सम्हलना तो स्वयं पड़ता है, किसने किनको सम्हाला ? मनीषियो! भव-के-भव बीत गये, लेकिन सम्हल नहीं पाये, सम्हलने के भाव आते हैं तो फँसानेवाले हजारों मिलते हैं ध्यान रखना, सुई में जब धागे को पिरोया जाता है, तब कितना एकाग्र होना पड़ता है? आचार्य कुंदकुंददेव "अष्ट पाहुड' ग्रंथ में कह रहे हैं कि आत्म-सुई में सूत्र को डालने के लिए कितना एकाग्र होना पड़ेगा? जब तक एकाग्र नहीं होंगे, तब तक यह सूत्र तेरी आत्म–सुई में जानेवाला नहीं हैं अनादिकाल से यह आत्मा मिथ्यात्व एवं असंयमभावरूप विभिन्न प्रवृत्तियाँ-रूपी-छिद्र बना रहा हैं! फट रही है तेरी आत्मां उनको तभी सिल पाओगे जब मन, वचन, काय योग स्थिर होंगें पंडित दौलतराम जी लिख रहे
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