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पुरुषार्थ सिद्धि उपाय : आचार्य अमत चंद्र स्वामी पुरुषार्थ देशना : परम पूज्य आचार्य श्री १०८ विशुद्ध सागरजी महाराज
Page 368 of 583 ISBN # 81-7628-131-3 -2010:002 अंतर-दशा जाग्रत नहीं होतीं जब शुद्धि के परिणाम जीव के अंतरंग में उत्पन्न होते हैं, तब संयम अपने आप झलकने लगता हैं जो जीव जीवन में कभी एक दिन को अभक्ष्य नहीं छोड़ पाये, वे आज मुनि बनकर विचरण कर रहे हैं आचार्य शांतिसागर महाराज के संघ में एक पायसागर मुनिराज हुए, जो सप्तव्यसनीजीव थे, जिसके नाम पर लोग भयभीत होते थे, लेकिन भवितव्यता को किसी ने नहीं जाना कि परिणति किसी जीव की कितनी निर्मल हो सकती हैं जब वे निग्रंथ-दशा को प्राप्त हुए, तब उनने इतनी घोर तपस्या की, कि उनकी तपस्या के आगे सभी ने सिर टेक दियां कहते थे कि पापों को मैंने किया है और कितनी तीव्रता में किया है वह मैं ही जानता हूँ जितना गरम बर्तन होगा, उसको ठण्डा करने के लिए उतनी ही शीतलता चाहिएं जितनी कषाय के वेग से आपने कर्मों का बंध किया है, जितने उबाल आपके अंतरंग में आये हैं, उस आत्म-पात्र को शीतल करने के लिए उतनी ही आपको साधना की आवश्यकता हैं यदि साधना नहीं हो पाती, तो अंतरंग की निर्मलता कहाँ से होगी ?
भो ज्ञानी! जरा सँभलकर सुननां भोगी की उम्र है परन्तु योगी के लिए कोई उम्र नहीं होती हैं भोगों की सीमा है, जबकि योग असीम होता हैं भोग एक आयु तक चलते हैं और अंत में आपको वैरागी बना देते हैं, पर वैराग्य कभी किसी को वैरागी नहीं बनाता हैं वैराग्य अपने आप में अपने आप को शासक बना देता हैं भोग मृत्यु के पहले छूट जाते हैं, लेकिन योग अंतिम सांसों तक चलते हैं योग परम-योग बनता है, वही परम-नियोग को प्राप्त करता हैं कषायों की सीमा है आक्रोश की सीमा है, परन्तु एक क्षण की साधना असीम होती हैं मूलाचार में उल्लेख आया कि विनयपूर्वक जिसने श्रुत का अभ्यास किया, कदाचित् प्रमादवश वह जीव जाने हुये ज्ञान को भूल जाये, लेकिन वही ज्ञान भविष्य में केवलज्ञान का कारण बनता हैं यदि कोई जीव जीवन में साधना से संस्कारित हो जाता है, ध्यान रखना, जरा सा संयोग मिलने पर संत के रूप में प्रकट हो जाता हैं जिनवाणी कहती है कि जातिस्मरण नरकों में भी हो जाता हैं नारकी वहाँ देखते हैं कि मैंने पूर्व-पर्याय में सद्गुरुओं की वाणी को सुना था, जिनेन्द्र की देशना को सुना थां मुझे विश्वास है कि यदि आप नरक मे भी चले जाओगे, निगोद में भी चले जाओगे, लेकिन आज के संस्कार किसी न किसी रूप में नियम से उद्भूत होंगे, फिर वहाँ आयेगा जातिस्मरण कि, अहो! मैंने कहीं सुना था, लेकिन मैं नरक में आ कैसे गया ? अहम् के, काम के, वासना के मद में मैंने उन संस्कारों को निवास नहीं दिया, इसलिए नरक में
वास करना पड़ा
भो ज्ञानी! हमारे आचार्यों ने गंभीर सूत्र लिखा है- दान देना, तो स्वयं के द्रव्य से देनां क्योंकि स्वयं के द्रव्य को देने पर भाव उमड़ते हैं, भक्ति उमड़ती है और लगता है कि इस द्रव्य का कितना निर्मल उपयोग होना चाहिएं पिता के द्रव्य को जब हम देते हैं, तो पता नहीं होता है कि कमाया कैसे जाता हैं ऐसे ही वर्तमान पर्याय में किया गया पुण्य यदि वर्तमान पर्याय में उदय में आ जाये, तो उसकी आप सम्हाल करते हो
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