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पुरुषार्थ सिद्धि उपाय : आचार्य अमृत चंद्र स्वामी
पुरुषार्थ देशना : परम पूज्य आचार्य श्री १०८ विशुद्ध सागरजी महाराज Page 322 of 583 ISBN # 81-7628-131-3 v- 2010:002
भो मनीषियो! आचार्य भगवान् कुंदकुंदस्वामी 'समयसार जी में कह रहे हैं-हे जीव! तू छूटना चाहता है, तो वैराग्य की सम्पत्ति को प्राप्त कर ले तुम सब भगवान् तो बनना चाहते हो, पर वैरागी नहीं बनना चाहतें भगवान् जिनेन्द्रदेव का उपदेश है कि कर्म में राग मत करो, पाँचवे पाप को पाप ही मानों यदि पाँचवे पाप को पाप ही मान लिया तो विश्वास रखना कि चार पाप अपने आप छूट जायेंगें अतः पूरा नहीं तो कम से कम परिग्रह का परिमाण भी आपने कर लिया तो आपके देश से गरीबी दूर भाग जायेगीं अहो आत्मन्! आपके घरों में ऐसी सामग्री रखी है जो कभी काम में नहीं आ रही, पर कोई माँगे तो, भैया ! फिर काम आयेगीं पर कभी काम नहीं आयीं मालूम चला कि देखते-देखते हम भी पूरे हो गये, पर वे वस्तुएँ काम में नहीं आयीं अहो! तू सोचता है कि भोग उसे कहते हैं जो भोगते - भोगते समाप्त हो जाए, लेकिन तूने भोगों को ऐसा भोगा कि तुमको ही भोगों ने भोगां किसने किसको भोगा ? अच्छा बताओ कि पूरा कौन हुआ ? भोगों ने तुमको भोग डाला, लेकिन तुमने भोगों को नहीं भोगां इसलिए संतोष को बुला लो, लक्ष्मी का दुःख समाप्त हो जाएगा
भो ज्ञानी! परिग्रह–संज्ञा में संतोष लाओ, परिग्रह की संज्ञा को मिटा दों अपने पिताजी से पूछ लेना कि पिताजी आपको संतोष है कि नहीं बोले- बेटा ! जब तुम नहीं थे, तब भी असंतोष था और जब से तुम आ गये तो दूना असंतोष हो गयां अब क्या बोले मत पूछो, मुट्ठी में बंद रहने दो हमारी बातें मनीषियो ! सुखिया वही है, जो इच्छा को त्यागे, जब तक इच्छा नहीं छूट रही, सुखिया नहीं बन पाओगें इसलिए पुण्य तो आयेगा ही, लेकिन उसमें फूल नहीं जाना, नहीं तो कूलना पड़ेगां अहो ! सम्पत्ति मिल जाए, बसं महाराज! और कुछ नहीं चाहिएं जितनी भी सभा दिख रही है, कोई हाथ देखनेवाला झूठ-मूठ इतना कह दे कि तुम यह पुड़िया ले जाओ और संदूक में रख देना, तो देखो आजकल कैसी पेटियाँ बिक रहीं हैं? हाँ इतना अंतर रहेगा कि जो बिल्कुल अज्ञानी है, वह तो खुलेआम ही आयेंगे और जो कुछ ढँके हुये हैं, वह दूसरे को भेजकर पुड़िया मँगा लेंगें भो ज्ञानी! वह ठीक तो कह रहे हैं - तत्त्व की पुड़िया ले जाओ, आत्म-संदूक में रख लो, रत्नत्रय के मोती निकल आएँगें तुम कहाँ मोतियों की बातों में पड़े हो? यह मोह / ममत्व के परिणाम मोहनीयकर्म की उदीरणा से होते हैं इसलिए जो-जो वस्त्रों में लिपटे हैं, वे निग्रंथ नहीं हैं जो निग्रंथ नहीं हैं, उनकी मुक्ति नहीं हैं कुंदकुंद आचार्य " अष्ट पाहुड़" ग्रंथ में स्पष्ट लिख रहे हैं कि
ण वि सिज्झइ वत्थधरो, जिणसासणे जइ वि होइ तित्थयरें णग्गो विमोक्खमग्गो, सेसा उम्मग्गया सव्वे23 अ. पा./स. पा
जिनेन्द्र के शासन में तीर्थंकर ही क्यों न हों, वस्त्र धारण करके मोक्ष नहीं जा सकतें अन्य उन्मार्ग हैं, मार्ग तो निग्रंथ-मार्ग हैं मनीषियां ! अब सम्पूर्ण परिग्रह के बिना भी यदि मूर्च्छा है, तो परिग्रह है, इस प्रकार
जानना
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