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पुरुषार्थ सिद्धि उपाय : आचार्य अमत चंद्र स्वामी पुरुषार्थ देशना : परम पूज्य आचार्य श्री १०८ विशुद्ध सागरजी महाराज Page 32 of 583 ISBN # 81-7628-131-3 -2010:002
के प्रवर्तक होते हैं जो एक नय का पक्ष लेता है, वह दूसरे का घातक हो जाता हैं कथनशैली में प्रधानता तथा गौणता तो आ सकती है, परंतु गौणता के स्थान पर अभाव नहीं होता, यही जैनदर्शन की अनेकांतशैली हैं जो व्यक्ति नय-विवक्षा को नहीं जानता, वह निश्चय एवं व्यवहार उभय तीर्थ का घातक होता हैं कहा भी
जइ जिणमयं पवज्जइ ता मा ववहारणिच्छए मुअर्ट्स एकेण विणा छिज्जइ, तित्थं अण्णेण पुण तच्च अ.ध. पृ-18
अर्थात् यदि तू जिनमत में प्रवर्तन करता है तो व्यवहार-निश्चयनय को मत छोडं यदि निश्चय का पक्षपाती होकर व्यवहार को छोड़ देगा तो रत्नत्रयस्वरूप धर्मतीर्थ का अभाव हो जायेगा और यदि व्यवहार का पक्षपाती होकर निश्चय को छोड़ेगा तो शुद्ध तत्त्वस्वरूप का अनुभव होना दुष्कर हैं इसलिये व्यवहार और निश्चय को अच्छी तरह जानकर पश्चात यथायोग्य अंगीकार करना, पक्षपाती न होना, यह उत्तम श्रोता का लक्षण हैं यहाँ पर यदि कोई प्रश्न करे कि जो गुण (निश्चय-व्यवहार का जानना) वक्ता का कहा था वही श्रोता का क्यों कहा? तो उत्तर यही समझना है कि वक्ता के गुण अधिकता से रहते हैं और श्रोता में वे ही गुण अल्परूप से रहते हैं अतः पुनः समझना धर्मतीर्थ के प्रचार हेतु उभय नय का ज्ञान अनिवार्य ही हैं इसके बिना उपदेश देने का भी अधिकार नहीं हैं इस प्रकार समझकर स्वपर कल्याण के इच्छुक को सतत् नय अभ्यास करते रहना चाहियें
अतिशय क्षेत्र श्री महावीरजी
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