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पुरुषार्थ सिद्धि उपाय : आचार्य अमत चंद्र स्वामी पुरुषार्थ देशना : परम पूज्य आचार्य श्री १०८ विशुद्ध सागरजी महाराज
Page 31 of 583 ISBN # 81-7628-131-3 -2010:002 पारंगत/ कुशल प्रवक्ता, वाणी में माधुर्य, ओज की प्रधानता, समयानुसार भाषण करने वाला तथा निश्चय एवं व्यवहार, उभय नय को अपनी विषयवस्तु बनाने वाला, एकांतनय से अपनी वाणी की रक्षा करने वाला तत्त्वज्ञानी जीव ही जगत में शिष्यों के अज्ञान को दूर करने वाला ही तीर्थ का प्रवर्तन कर सकता हैं
भो ज्ञानी! उपदेशदाता आचार्य में जिन-जिन गुणों की आवश्यकता है, उन सबमें मुख्य गुण व्यवहार और निश्चय नय का ज्ञान है, क्योंकि जीवों का अनादि-अज्ञान-भाव मुख्य कथन और उपचरित कथन के ज्ञान से ही दूर होता है, सो मुख्य कथन तो निश्चयनय के अधीन है और उपचरित कथन व्यवहार-नय के अधीन है "स्वाश्रितो निश्चयः" अर्थात् जो स्वाश्रित (अपने आश्रय से) होता है, उसे "निश्चयनय” कहते हैं इसी कथन को मुख्य कथन एवं परमार्थदृष्टि कहते हैं इस नय के जानने से शरीर आदि परद्रव्यों के प्रति एकत्व-श्रद्धानरूप अज्ञान-भाव का अभाव होता है, भेदविज्ञान की प्राप्ति होती है तथा पर-द्रव्यों से भिन्न अपने शुद्ध चैतन्य-स्वरूप का अनुभव होता है, तब जीव परमानंद दशा में मग्न होकर केवलदशा को प्राप्त करता हैं जो अज्ञानीपुरुष इसके जाने बिना धर्म में लवलीन होते हैं, वे शरीरादिक क्रियाकाण्ड को उपदेश जानकर संसार के कारणभूत शुभोपयोग को ही मुक्ति का साक्षात् कारण मानकर स्वरूप से भ्रष्ट होकर संसार में परिभ्रमण करते हैं इसलिये मुख्य कथन को जानना, जो निश्चय नय के अधीन हैं निश्चयनय को जाने बिना यथार्थ उपदेश भी नहीं हो सकतां जो स्वयं ही अनभिज्ञ है, वह कैसे शिष्यजनों को समझा सकता है? किसी प्रकार नहीं
भो ज्ञानी! यहाँ पर इस बात का ध्यान रखना कि जो शुभोपयोग को संसार का हेतु कहा है, वह सर्वथा नहीं समझनां सम्यक्दृष्टि जीव का निदान रहित शुभोपयोग तो परम्परा से मोक्ष का ही हेतु है, परन्तु निर्वाण का साक्षात हेतु शुद्धोपयोग ही हैं अतः व्यवहार क्रियाओं में संतोष धारण नहीं करना चाहिए परमार्थ पर
दृष्टि प्रतिक्षण बनाकर मुमुक्षु जीवों को चलना चाहिए, अन्यथा भूतार्थ स्वरूप से अपरिचित ही रहेगा, अनादि से परिचय में आये विषय-कषायरूप परिणामों से ही सम्बंध रहेगां कौन चाहता है कि श्रेष्ठ व्यक्ति व वस्तु से मेरा सम्बंध विच्छेद हो, पुदगलमय कर्म, परमेश्वरमय आत्मा को क्यों छोड़ेंगे? अतः, निश्चयनय को समझना अनिवार्य ही हैं
भो ज्ञानी! व्यवहारनय "पराश्रितो व्यवहारः" जो पर-द्रव्य के आश्रित होता है, उसे व्यवहार कहते हैं और पराश्रित- कथन उपचार कथन कहलाता हैं उपचार कथन का ज्ञाता शरीरादिक सम्बंध-रूप संसारदशा को जानकर संसार के कारण आस्त्रव- बंध का निर्णय कर मुनि होने के उपायरूप संवर-निर्जरा तत्त्वों में प्रवृत्त होता है, परंतु जो अज्ञानी जीव इस व्यवहारनय को जाने बिना शुद्धोपयोगी होने का प्रयत्न करते है, वे पहले ही व्यवहार साधना को छोड़, पापाचरण में मग्न हो, नरकादि दुःखों में जा पड़ते हैं इसलिये व्यवहार नय का जानना भी परमावश्यक हैं अभिप्राय यह है कि उक्त दोनों नयों के जाननेवाले उपदेशक ही सच्चे धर्मतीर्थ
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