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पुरुषार्थ सिद्धि उपाय : आचार्य अमृत चंद्र स्वामी पुरुषार्थ देशना : परम पूज्य आचार्य श्री १०८ विशुद्ध सागरजी महाराज Page 288 of 583 ISBN # 81-7628-131-3 -2010:002
"सत्य का विनाश नहीं होता" असदपि हि वस्तुरूपं यत्र परक्षेत्रकालभावैस्तै उद्भाव्यते द्वितीयं तदनृतमस्मिन् यथास्ति घट93
अन्वयार्थ :हि यत्र = निश्चयकर (जिन वचन में ) तैः परक्षेत्रकालभावैः = उन परद्रव्य, क्षेत्र, काल, भावों के असत् अपि = अविद्यमान होने पर भी वस्तुरूपं वस्तु का स्वरूपं उदभाव्यते = प्रकट किया जाता हैं तत द्वितीयं = वह दूसरां अनृतम् स्यात् = असत्य होता हैं यथा अस्मिन = जैसे यहाँ परं घट अस्ति = घड़ा है
वस्तु सदपि स्वरूपात् पररूपेणाभिधीयते यस्मिन् अनृतमिदं च तृतीयं विज्ञेयं गौरिति यथाऽश्व94
अन्वयार्थ :च यस्मिन् = और जिस वचन में स्वरूपात् = अपने चतुष्टय से सत् अपि = विद्यमान होने पर भी वस्तु = पदार्थ पररूपेण = अन्य के स्वरूप में अभिधीयते = कहा जाता हैं इदं = यहं तृतीयं अनृतम् = तीसरा असत्यं विज्ञेयं = जानना चाहिएं यथा = जैसें गौः = बैलं अश्वः = घोड़ा है, इति = ऐसा कहनां
भो मनीषियो! यहाँ आचार्य भगवान् ने सत्य की चर्चा की है, यदि दृष्टि मैं विपर्यास है अर्थात् सोच विपरीत होता है तो समीचीन कहनेवाले के प्रति भी असमीचीन विचार आते हैं, क्योंकि दृष्टि विकृत हैं अतः सत्य को समझने के लिए बाहर के दर्पण की आवश्यकता नहीं है, सत्य को समझने के लिए परिणामों की निर्मलता के आदर्शों की आवश्यकता हैं वास्तविकता को समझ लेने पर प्रत्येक पदार्थ में आपको सत्यता महसूस होगी
मनीषियो! सत्य में भ्रम होने पर आपको द्रव्य में असत्यपना महसूस होने लगता हैं संसार में अनेक रोगों की औषधियाँ हैं, लेकिन भ्रम के रोग का निवारण करनेवाली एकमात्र औषधि जिनवाणी ही हैं विश्व में सबसे बड़े भ्रम के रोग के पीछे जीव कलुषित परिणाम रखता हैं उस कलुषित परिणति से शरीर में विकार
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