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पुरुषार्थ सिद्धि उपाय : आचार्य अमत चंद्र स्वामी पुरुषार्थ देशना : परम पूज्य आचार्य श्री १०८ विशुद्ध सागरजी महाराज Page 287 of 583 ISBN # 81-7628-131-3 -2010:002
आकर बैठ गये, तब तुम्हारे विवेक का पता चल गया कि कितना सत्य था? कितनी करुणा थी? क्योंकि एक ज्ञानी पहले उठाकर देख लेगा और विवेकहीन आकर बैठ जायगां बस, लग गया पता विवेक कां
भो ज्ञानी! विवेक की कोई सीमा नहीं है विवेक असीम हैं अतः जो भी काम करो, विवेक से करों यदि किसी से लड़ना भी हो, तो विवेक से लड़नां क्योंकि जब मैं लडूंगा तो कर्म का बंध किसे होगा? ऐसा विवेक लगाना और जैसे ही आपने विवेक लगाया, वह चिति-शक्ति कह रही है कि कर्म का बंध तो स्वयं को होगा, अतः छोड़ो, अपन धीरे से निकल चलें देखो, विवेक ने इतना काम किया कि लड़ाई टल गईं चिति-शक्ति कह रही है कि तुम जड़ नहीं हो, चैतन्य हों अतः अपने ही धर्म को देखो तो विवाद नहीं हो पायेगां अपना घर सिद्धालय हैं इन बाहर के लोगों के बीच में पड़ कर अपना घर मत उजाड़ देना, ये स्वार्थी लोग हैं अहो! भड़काने वाले लाखों होते हैं और विकारी भाव भी शाश्वत नहीं हैं घर उजाड़ने के लिए वे एक मुहूर्त को आते हैं, पर अपना साम्य-भाव सदा रहता हैं यदि साम्यभाव नहीं रहेगा तो तुम गृहस्थ की कोई भी क्रिया नहीं कर सकतें सामने वाला तो तुम्हारी कषाय को फैलायेगा, जबकि संत अपनी कषाय को दबा लेता हैं इसी का नाम उपशम भाव हैं अतः बाहर की बातों में मत डूब जाना, कषाय को दबा लेनां यदि उपशम भाव से बैठोगे तो सत्य नजर आयेगा, अन्यथा सत्य दिख ही नहीं सकतां
भो ज्ञानी! आचार्य भगवान् अमृतचन्द्र स्वामी ने कथन किया कि वाणी तुम्हारी बाण न बने, वीणा बनें क्योंकि वीणा की ध्वनि को सुनकर सर्प भी नाच उठता हैं इसलिये बोलना ही है तो अच्छा बोलों चिति-शक्ति कह रही है कि जिससे परजीवों को पीड़ा उत्पन्न हो, वह सब असत्य हैं यदि आप सत्य भी बोल रहे हो और आपकी नारद वृत्ति है, तो जिस वाणी से दूसरे को क्लेश पहुँचे, समझ लेना असत्य ही हैं पता नहीं कितने जीवों के स्वभावों का तुम घात करा आये, अतः हिंसा भी हैं एक जीव निर्मल भावों से शान्त बैठा था और आप जाकर उल्टी-सीधी बोलकर आ गयें यदि उसके परिणाम खराब हो गये, तो आपने उसके शुभ भावों का घात कर दियां इसीलिये, मनीषियो! ऐसी प्रयोगशाला मत खोलना जिससे सबके परिणाम कलुषित हो जायें अहो! अन्दर की वीतरागता, अन्दर की सत्यता या असत्यता को आपकी आँखें बता देती हैं, क्योंकि व्यक्ति के अंदर का प्रतिबिम्ब दिखाने वाली आँखें हैं तुम किसी व्यक्ति को जबरन पकड़कर भगवान् के पास बिठा देना, सिर पकड़ कर चरणों में टिका देना, परंतु उसकी आँखें कहेंगी कि हमारे अंदर श्रद्धा ही नहीं हैं क्योंकि दृष्टि है तो दृष्टि है, दृष्टि नहीं तो दृष्टि नहीं दृष्टि याने सम्यग्दर्शन, श्रद्धा और दृष्टि याने दर्शनं अंदर की दृष्टि है, तो दृष्टि के भाव बनते हैं और दृष्टि नहीं है तो फिर भाव भी नहीं बनतें
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