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________________ पुरुषार्थ सिद्धि उपाय : आचार्य अमृत चंद्र स्वामी : पुरुषार्थ देशना परम पूज्य आचार्य श्री १०८ विशुद्ध सागरजी महाराज Page 289 of 583 ISBN # 81-7628-131-3 v- 2010:002 उत्पन्न होते हैं, फिर तन में रोग हो जाता हैं इसलिए सत्य दृष्टि पवित्र हैं पवित्रता की खोज अंतरंग में होती हैं जिसका हृदय पवित्र है, उसकी वाणी में निर्मलता निकलेगीं जिसके हृदय में पवित्रता नहीं है, उसकी वाणी सत्य / समीचीन नहीं निकल सकतीं ध्यान रखना, यदि ह्रदय की असत्यता से आप सत्य भी कहना चाहोगे तो वह वाणी तुम्हारी लड़खड़ा जाएगी, शब्द नहीं मिलेंगे वाणी में तुम अयथार्थ कहना चाहते हो तो वहाँ तुम लड़खड़ा जाओगें अतः शुद्ध-दृष्टि अंतरंग की पवित्रता पर निर्भर हैं अंतःकरण पवित्र है, तो आचरण भी पवित्र होगां मनीषियो शब्द में पहले असत्य नहीं आतां पहले ह्रदय में असत्यता आती हैं पाप पहले इन्द्रियों में नहीं आता, किंतु पहले मन में आता हैं जब मन कहता है कि ऐसा कह दो, तो वचन को बोलना पड़ता हैं संसार के कानून तो शरीर और आँखों से दिखने पर पापी को दण्ड दे पाते हैं, परन्तु कर्म - सिद्धांत मन में आने से पहले ही दण्ड की प्रक्रिया को प्रारम्भ कर देता हैं संसार में जब बोल पाओगे तब ही असत्यवादी कहलाओगे; लेकिन माँ जिनवाणी कहती है, बेटा! असत्य बोलने के परिणाम जबसे किये, तभी से तुम असत्यवादी हो चुके हों इसीलिए आचार्य अमृतचंद स्वामी कह रहे हैं कि द्रव्य सत्य हैं द्रव्य घर में है, अस्तिरूप है, फिर भी उसे नास्ति कह रहा हैं मैं पुद्गल रूप नहीं हूँ मैं जड़रूप नहीं हूँ, पररूप नहीं हूँ. फिर भी तू पर को अपना मान रहा है, असत्य को भी सत्यरूप में स्वीकार रहा हैं। भो ज्ञानी ! यदि जन्म व मृत्यु रूप प्रकृति का परिणमन सत्य है, तो हर्ष-विषाद किसके ऊपर ? ज्ञानी दोनों में मध्यस्थ होता हैं इसका तात्पर्य यह है कि जानकर रो रहे हो या बनावटी रो रहे हों दिखाने के लिए रो रहे हो, रोना भी परम्परा हैं, रोएँगे नहीं, तो कोई क्या कहेगां भो ज्ञानी! सत्य का जीवन बहुत कम जी पाते हैं 100 वर्ष की उम्र में दो वर्ष भी सत्य का जीवन जी पाते हों, तो भी ज्यादा हैं इसीलिए सत्य का जीवन शुद्ध-उपयोग, यथाख्यात- संयम है और सत्य की प्राप्ति सिद्ध पर्याय हैं अतः दर्शन-शक्ति कह रही है कि अभी सत्य को देखने के भाव भी तुम्हारे नहीं हैं अहो व्यापारियो ! चैतन्य का व्यापार बहुत दूर हैं 50 रुपए की साड़ी है, ग्राहक से कहते हो कि हम 70 की तो खरीद के लाये हैं इसीलिए आपको 80 में दे रहे हैं अब नहीं मानते हो तो 75 की ले जाओं अहो! कितना झूठ बोले ? क्या यह तुमको परमात्मा बनवा देगा? असत्य के पीछे पूरा जीवन नष्ट कर दियां यदि असत्य का सहारा नहीं लिया होता तो आप सिद्धालय में विराजे होतें हर दृष्टियों में लगानां हमारे लिए नौकरी दो घंटे की है, पांच मिनिट काट लियें क्या हुआ? असत्य हो गया, चोरी भी हो गईं प्रवचन सुनने के लिए घर से गये थे और रास्ते में कोई व्यक्ति / मित्र मिल गया, चर्चा में लग गयें घर से क्या बोल कर आये थे? वहाँ जाकर क्या कहोगे ? व्यर्थ का झूठ बोलता हैं कहाँ जा रहे हो? बोले- कहीं नहीं जा रहें जबकि जा रहे हैं महाराज! व्यवहार हैं इसीलिए व्यवहार को अभूतार्थ कहा हैं वह - Visit us at http://www.vishuddhasagar.com Copy and All rights reserved by www.vishuddhasagar.com For more info please contact: akshayakumar_jain@yahoo.com or pkjainwater@yahoo.com
SR No.009999
Book TitlePurusharth Siddhi Upay
Original Sutra AuthorAmrutchandracharya
AuthorVishuddhsagar
PublisherVishuddhsagar
Publication Year
Total Pages584
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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