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पुरुषार्थ सिद्धि उपाय : आचार्य अमत चंद्र स्वामी पुरुषार्थ देशना : परम पूज्य आचार्य श्री १०८ विशुद्ध सागरजी महाराज Page 244 of 583 ISBN # 81-7628-131-3 -2010:002
प्रतिमा बनाई हैं समझना बात को, जिसकी प्रतिमा बनी है, वह भी एकेन्द्रिय मिथ्यादृष्टि हैं पाषाण की प्रतिमा में विराजा एकेन्द्रियजीव है और एकेन्द्रिय से लेकर असंज्ञी पंचेन्द्रिय तक के जीव नियम से मिथ्यादृष्टि ही होते हैं; परंतु जो वंदना कर रहा है, वह सम्यक्दृष्टि हैं जो पाषाण में विराजा जीव है, उसकी आप वंदना तो नहीं कर रहे हो, लेकिन ध्यान रखना, उस जीव का तीव्र यशकीर्ति- नाम-कर्म का उदय हैं क्योंकि एक पाषाण प्रतिमा के आकार में है और एक पाषाण तुम्हारे संडास में लगा हुआ हैं दोनों में जीव हैं यह मत कह देना कि खदान से निकल गया तो अजीव हो गया, क्योंकि सिद्धान्त यह कहता कि घनांगुल के असंख्यातवें भाग की अवगाहना एकेन्द्रियजीव लेता है और निगोदियाजीव की सबसे सूक्ष्म अवगाहना बनती हैं निगोदियाजीव भी जब जन्म लेता है तो सबसे पहले आयताकार बनता है अर्थात् लंबाई अधिक, चौड़ाई कम द्वितीय समय में वह जीव चतुर्कोण होता है यानि क्षेत्र कम हो गयां तृतीय समय में वृत्ताकार अर्थात् गोल हो जाता हैं ऐसा घना-अंगुल के असंख्यातवें भाग की अवगाहना से युक्त एक ही शिला में पता नहीं कितने जीव अपना शरीर बनाये बैठे हैं अब देखना कि एक पूजा रहा है एवं एक पुज रहा है, दोनों जीव हैं अहो पंचमकाल की ज्ञानी आत्माओ! एकेन्द्रिय पाषाण में परमेश्वर का उपचार करके तुम तीर्थंकर की वंदना कर लेते हो, तो चेतन निग्रंथों में तुम्हें मुनि-दृष्टि क्यों नहीं दिखती है? पाषाण में भगवान् हो सकते हैं, तो भगवानों में भगवान् जिसे नहीं दिखे, उसकी दृष्टि क्या होगी? यदि किसी जीव ने धोखे से भगवान् को देख लिया ('धोखा' शब्द याद रखना ) और धोखे से जिनवाणी सुन ली, धोखे से मुनिराज देख लिए परन्तु 'दर्शन' नहीं किये क्योंकि 'दर्शन' श्रद्धा से होते हैं और 'देखना' अश्रद्धा का विषय होता हैं
मुमुक्षु पंच-परमेष्ठी के दर्शन करता है और मिथ्यादृष्टि पंच-परमेष्ठी को निहारता है, देखता हैं अज्ञानता से कोई पंच परमगुरु को न माने तो, भो ज्ञानी! पंच-परमगुरु का अभाव नहीं हैं जिसकी पंच-परावर्तन की दृष्टि चल रही है, उसे पंच-परमगुरु नजर नहीं आतें उसे पंचपरमेष्ठी कभी नहीं दिखेंगे, क्योंकि दिख गये कहीं तो उसका परावर्तन समाप्त हो जायेगां जिस जीव ने एक बार भी पंच-परमगुरु के दर्शन श्रद्धा पूर्वक कर लिए, उसको अर्द्धपुद्गल-परावर्तन से ज्यादा भगवान् भी संसार में नहीं रख सकतें 'सर्वार्थ सिद्धि' में 'दश' धात यद्यपि देखने के अर्थ में आती है, लेकिन मोक्षमार्ग का प्रकरण होने से श्रद्धा के अर्थ में रखा हैं अतः, दर्शन सम्यकदृष्टि करता है और पंच परमेष्ठी को जो देखते हैं, वह मिथ्यादृष्टि होते हैं जो तीर्थों को देखने जाते हैं, वह तो मिथ्यादृष्टि होते हैं और जो तीर्थों के दर्शन करने जाते हैं, वो सम्यक्दृष्टि होते हैं देखने तो प्रदर्शनी को जाया जाता है, प्रभु को नहीं प्रभु के तो दर्शन करने जाया जाता है, जो दर्शन करने जाता है वो दर्शन ही करता है और जो देखने जाता है, वो देखकर ही आता हैं जब एक सम्यकदृष्टिजीव अरहंतदेव के गुण-पर्याय को देखता है, तो वह दर्शन करता हैं 'दृश' धातु देखने के अर्थ में भी आती है और 'गम' धातु गमन अर्थ में आती है और ज्ञान अर्थ में भी आती हैं
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