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पुरुषार्थ सिद्धि उपाय : आचार्य अमृत चंद्र स्वामी पुरुषार्थ देशना : परम पूज्य आचार्य श्री १०८ विशुद्ध सागरजी महाराज Page 243 of 583 ISBN # 81-7628-131-3 -2010:002
'आचार से संस्कारित विचार' कृतकारितानुमननैर्वाक्कायमनोभिरिष्यते नवधां औत्सर्गिकी निवृत्तिर्विचित्ररूपापवादिकी त्वेषां 75
अन्वयार्थ:औत्सर्गिकी निवृत्तिः = उत्सर्गरूप निवृत्ति अर्थात् सामान्य त्यागं कृतकारितानुमननैः = कृत, कारित, अनुमोदनारूपं वाक्कायमनोभिः = मन वचन काय करके नवधा इष्यति = नव प्रकार मानी हैं तु एषा = और यह अपवादिकी = अपवादरूप निवृत्तिं विचित्र रूपा = अनेक रूप हैं
धर्ममहिंसारूपं संशृण्वंतोपि ये परित्यक्तुम् स्थावरहिंसामसहास्त्रसहिंसां तेऽपि मुंञ्चन्तुं 76
अन्वयार्थ:ये अहिंसा रूपं धर्मम् = जो जीव अहिंसा रूप धर्म को संशृण्वन्तः अपि = भले प्रकार श्रवण करके भी स्थावर हिंसाम् = स्थावर जीवों की हिंसा परित्यक्तुम् असहाः = छोड़ने को असमर्थ हैं, ते अपि = वे भी त्रसहिंसाम् = त्रस जीवों हिंसा को मुंचन्तु = छोड़ें
मनीषियो! इस जीव ने बहुत साधन प्राप्त किये हैं, पर साधनों का होना साधन (हेतु/कारण/ प्रत्यय)नहीं हैं जिस साधन से साध्य की सिद्धि हो,वो ही साधन उपादेय हैं जिससे हमारे साध्य की सिद्धि न हो, वह हमारे लिये साधन नहीं है, यद्यपि वही साधन दूसरे के लिये साध्य की सिद्धि करा रहा हैं इससे लगता है, कि जीव की होनहार ही है या कि जीव की भवितव्यता; एक चाण्डाल के लिये साधन बन गये और वहीं बैठे एक क्षत्रिय के लिये साधन नहीं बन पायें तो हम साधना में दोष क्यों दें? हमारी आदत दूसरों को दोष देने की रही है, पर ध्यान रखना, मिथ्यात्व-अवस्था में, कषाय की तीव्रता में धोखे से भी भगवान के दर्शन हो जायें तो वह भी पुण्य का ही योग हैं परंतु उसने दर्शन किये नहीं, मात्र देखा और चला गयां माँ जिनवाणी कह रही है-मिथ्यादृष्टि भी सत्य जानता हैं जो इन प्रतिमाओं को कभी नहीं पूज रहा है, उसने
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