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पुरुषार्थ सिद्धि उपाय : आचार्य अमत चंद्र स्वामी पुरुषार्थ देशना : परम पूज्य आचार्य श्री १०८ विशुद्ध सागरजी महाराज Page 208 of 583 ISBN # 81-7628-131-3 -2010:002
पाषाण कितना कठोर है कि इतनी छैनी पड़ रही है फिर भी असरकारी नहीं इसलिए भगवान जिनेंद्र के नय को समझना, और जिसने नय को समझ लिया उसे सिद्धांत समझने में देर नहीं लगेगी जो नय को समझे बिना अध्यात्म को समझना चाहता है, वह बिना मार्ग के जंगल में प्रवेश कर रहा हैं अब बताओ उसका क्या होगा? यदि आगम के विरुद्ध, सिद्धांत के विरुद्ध हमारी प्रवृत्ति चल रही है, तो उससे बड़ी हिंसा क्या हो सकती है? अरे! सबसे बड़ी हिंसा मिथ्यात्व है, जो अनादि से आत्मा को संसार में भटका रहा है, इसीलिए आचार्य महाराज ने अहिंसा में नय को रखा है, क्योंकि हिंसा के भेदों को समझे बिना अहिंसा में प्रवृत्ति कैसे होगी? यदि आपका अहिंसा महाव्रत है, तो उस अहिंसा महाव्रत की रक्षा आप कैसे करोगे? जब तक आपको जीवस्थान मालूम नहीं होगा, तब तक उन जीवों की रक्षा कैसे करोगे?
भो ज्ञानी! आचार्य महाराज कह रहे हैं कि अहिंसा में भी नय की बात की गयी है, क्योंकि नय यानि वचनवादं वचनशैली को समझने के लिए नय अनिवार्य होते हैं और जब तक आप अहिंसा में नय नहीं लगाओगे, तो आप अपने मन से कुछ भी करते रहो, हिंसा हैं सिद्धांत के विपरीत बोलना, आगम के विपरीत चलना, किसी के हृदय को दुःखित कर देना हिंसा है और निज के परिणामों को कलुषित करना महा हिंसा हैं निज के परिणाम यदि पर के द्वारा बिगड़ रहे हैं तो हिंसा ही है, क्योंकि बिगाड़ किसका हो रहा है? तुम निमित्त को कितना ही दोष देते रहो, लेकिन काम तो तुम्हारा ही बिगड़ रहा हैं अहो! संसार की कितनी विचित्र दशा है, काम बिगड़ जाये तो कहेंगे-ऐसा निमित्त आ गया थां यह नहीं कहेंगे कि उपादान बिगड़ गया थां कहोगे कि सामग्री रखी थी, खाने के भाव आ गये, सो हमने खा ली; हमारा क्या दोष? अब बताओ सामग्री ने आपको कब निमंत्रण दिया था? इसलिए इस प्रपंच में मत पड़ो, सत्य को समझो, नयचक्र को
समझों
मनीषियो! आचार्य भगवान् कह रहे हैं कि नयचक्र अत्यंत तीक्ष्ण-पैनी-धारवाला, दुस्साध्य चक्र हैं ऐसा भगवान् जिनेंद्रदेव का यह नयचक्र मिथ्यात्वी पुरुष की मूर्धा के मस्तक को खण्ड-खण्ड कर देता है, फिर वहाँ मिथ्यात्व के मस्तक बचते ही नहीं हैं भगवान् जिनेंद्रदेव का यह सप्तभंगी नयचक्र सामान्य जीवों के द्वारा धारण नहीं किया जाता, इसलिए दस्साध्य हैं भो ज्ञानियो! जैसे हाथी का पलान हाथी पर ही शोभा देता है, मूषक के ऊपर नहीं; ऐसे ही अरहंतदेव का यह नयचक्र प्रज्ञ आचार्यों के द्वारा स्वीकार किया जाता है, सामान्य जीवों के लिए दुस्साध्य हैं इसीलिए आचार्य महाराज ने पहले ही कह दिया कि ऐसा नयचक्र स्याद् अस्ति, स्याद् नास्ति, स्याद् अस्ति-नास्ति, स्याद् अवक्तव्य, स्याद् नास्ति अवक्तव्य, स्याद् अस्तिअवक्तव्त, स्याद् अस्ति-नास्ति अवक्तव्यरूप सप्त भंगी हैं इस चक्र की निश्चय और व्यवहाररूप दो मूल धाराएँ हैं यह संपूर्ण नयचक्र प्रमाण पर टिका हुआ है, क्योंकि आगम को जान लेना और आगम को जानने की शैली में जानना; कौन- सा विषय कहाँ कहना है, इस प्रज्ञा को प्राप्त करना भी तेरे पूर्व सुकृत का प्रबल योग हैं अतः, इस
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