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________________ पुरुषार्थ सिद्धि उपाय : आचार्य अमृत चंद्र स्वामी पुरुषार्थ देशना : परम पूज्य आचार्य श्री १०८ विशुद्ध सागरजी महाराज Page 202 of 583 ISBN # 81-7628-131-3 -2010:002 भो ज्ञानी! किसी को कभी जिनबिंब की वंदना करने का निषेध मत कर देना, कभी निग्रंथ गुरुओं के दर्शन करने का निषेध मत कर देनां व्यवस्था बनाना, लेकिन कर्म का बंध नहीं कर लेनां दर्शन तो कर लो, पर भीड़ मत करो और कभी भी किसी को दर्शन से मत रोकना देखो, बाईस घड़ी तक जिनप्रतिमा को छिपाकर रखा था, तो ऐसा निःकांचित-कर्म का बंध हुआ था महारानी कनकोदरी को, कि अंजना की पर्याय में बाईस वर्ष तक पति का वियोग सहन करना पड़ां यद्यपि वे प्रायश्चित ले चुकी थीं, परंतु कर्म, बंध गया थां ध्यान रखना, प्रबल पुण्य का योग है तो सिंह के मुख में भी प्रवेश कर जाओ तो भी रक्षा हो जाती हैं प्रबल पुण्य के योग में पाप-कर्म का भी उदय होता है, तो दुर्ग में भी शत्रु खींच के मार देता हैं इसलिए इस अहंकार में मत डूबना कि हमने आपकी रक्षा की हैं पुण्य का योग न होता तो आपकी रक्षा काम में नहीं आतीं इसलिए उपकार तो करना, परंतु उसको बार बार मत कहना कि हमने तुम्हारे साथ ऐसा कियां ___ भो भगवान् आत्मा ! अहिंसा बहुत गंभीर हैं विश्व के जितने दर्शन हैं, अहिंसा के बाहर कोई नहीं है, सभी का एकमात्र सूत्र 'अहिंसा परमोधर्म': है और जिसने 'अहिंसा परमोधर्मः' समझ लिया, उसे अलग से व्याख्या करने की कोई आवश्यकता नहीं हैं मैंने एक दिन आपसे कहा था कि ज्यादा नियम मत पालों आप तो छोटा सा नियम ले लो कि पानी छानकर पीयेंगें परंतु विचार कर लेना कि पानी छानकर पीओगे तो बिना छने पानी की सामग्री कैसे सेवन करोगे? बाजार में तुमको कौन पानी छान के बना रहा है ? बाजार की सामग्री छूट गईं अब विवेक लगा लो कि अड़तालीस मिनिट की मर्यादा है छने पानी की इसलिए माँ से मत माँगना, अपने हाथ से छानकर पी लेना तो पराधीनता चली गईं नहीं तो ऐसा होता है, बेटा! अभी- अभी छाना है, पीलों अरे! माँ तो वह होती जो कहती है; बेटा! एक मिनिट ज्यादा हो गया, अभी नहीं पीना, मैं अभी छान देती हूँ आचार्य अमृतचंद्र स्वामी कह रहे हैं: भो ज्ञानी! अहिंसा के तत्त्व को समझना है तो ध्यान रखना, दूसरे के उपकार का कर्ता बनकर उसे दुःखित मत करना, वह भी हिंसा हैं उपकार करने के भाव तो अमरचंद्र दीवान के थे उन्हें पता चला कि एक बूढी माँ के लिए खाने को घर में कुछ नहीं थां अपनी साड़ी के दो भाग में एक से अपने बदन को ढ़के थी और एक से अपने बच्चे को लपेटे थीं दीवान ने देखा तो उन्होंने अनाज की पोटली में रत्न भरे और बुढ़िया माँ के यहाँ छोड़ कर आ गये और बोले-भोजन बनाकर बच्चे को खिला देना अहो! इतने रत्न ऐसे ही दे दिए, बिना पटिया लिखाएं अरे! तुम्हारे पटिया तो यहाँ मिट जायेंगे, पर उनका पटिया तो वहाँ सिद्धालय पर लिखा जायेगां अतः, किसी का उपकार तो करना, लेकिन उपकार करके भूल जाना, उसको दोहराना मतं एक जगह एक व्यक्ति को हाथठेला दिया गया और जिसे हाथठेला दिया वह जब उसे लेने आया तो आँखों से टप-टप आँसू टपक रहे थे इसकी वेदना उसके अंदर थी कि आज मुझे हाथठेला समाज से लेना पड़ रहा हैं अरे! उपकार करना था तो जैसे अमरचंद्र दीवान ने किया था, वैसे करते, किसी को पता ही नहीं चलतां तुम्हारे लिये तो तीनलोक का ज्ञानी देख रहा है कि तुम Visit us at http://www.vishuddhasagar.com Copy and All rights reserved by www.vishuddhasagar.com For more info please contact : akshayakumar_jain@yahoo.com or pkjainwater@yahoo.com
SR No.009999
Book TitlePurusharth Siddhi Upay
Original Sutra AuthorAmrutchandracharya
AuthorVishuddhsagar
PublisherVishuddhsagar
Publication Year
Total Pages584
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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