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पुरुषार्थ सिद्धि उपाय : आचार्य अमृत चंद्र स्वामी
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ISBN # 81-7628-131-3
v- 2010:002
पुरुषार्थ देशना परम पूज्य आचार्य श्री १०८ विशुद्ध सागरजी महाराज Page 203 of 583 उपकार कर रहे हों यही अहिंसा है और किसी के ह्रदय को दुःखी करके तुमने बहुत कुछ किया, तो कुछ भी नहीं कियां जिसका उपकार किया है उसका कर्त्तव्य बनता है कि उस उपकारी के उपकार को मानें
मनीषियो ! भगवान् अमृतचंद्र स्वामी कह रहे हैं कि अन्य किसी जीव को अहिंसा के परिणाम उदयकाल में हिंसा के फल को देते हैं देखो, कितना गहन तत्व है? एक जीव ने वध नहीं किया, फिर भी हिंसा के परिणाम को भोग रहा है और एक जीव से हिंसा हुई द्रव्य से, फिर भी अहिंसा का फल भोग रहा हैं जैसे कि किसी जीव ने दूसरे को मारने के भाव किये, लेकिन सोचता है कि मैं इज्जतवाला हूँ, उत्तम कुल में जन्मा हूँ, इसलिए कैसे मार सकता हूँ? उसने मारा तो नहीं, लेकिन परिणाम तो हो गयें भैयाजी त्यागी बन गये, पर परिणाम कसाई के हैं कहते हैं कि यदि आज मैं इस वेश में नहीं होता, तो मैं आपको देख लेतां यह तो देश की मर्यादा हैं ठीक है, वेश से द्रव्य हिंसा बच गई, लेकिन भाव हिंसा तो हो गई
भो ज्ञानियो! श्रमणसंस्कृति ने भावों की निर्मलता के लिए वेश दिया है, वेश की निर्मलता के लिए भाव नहीं दियें वेश काम में नहीं आएगा, भाव काम में आएँगें भाव गड़बड़ हो गए और वेश पूजता रहा, तो जीव कहाँ से कहाँ चला जायेगा, कह नहीं सकतें इसलिए जीवन में ध्यान रखना, यह वेश आपको अरहंत, सिद्धों का मिला हैं इस देश को प्राप्त करके भाव सुधार लेना भाव सुधर गये तो भव सुधर जाएगां भाव नहीं सुधरे तो कितने देश रथा के बैठ जाना, लेकिन भव सुधरनेवाला नहीं हैं जिनवाणी माँ पुकार पुकारकर कह रही है कि यह वेश दूसरे के लिए तो पूज्य है, पर तुम्हारे लिए तो पूज्य तुम्हारे भाव ही बनाएँगें धर्म का वेश बदनाम न हो इसलिए तुम शांत हो, पर वस्तुतः तुम तो बदनाम हो चुके हों हमारे आगम में निंदा के दो भेद किये हैं लोकनिंदा और आत्मनिंदां आपके भाव नीचे गिर गये, पर आप पाप नहीं कर रहे, तो लोकनिंदा तो बच गई, लेकिन कर्म से नहीं बचें ध्यान रखना आपकी रक्षा नहीं हुई, आप तो बंध चुके इसीलिए कह रहे हैं कि हिंसा नहीं करने पर भी हिंसा का फल भोग रहा हैं
भो ज्ञानी! एक आचार्य ने अपने शिष्य को ऐसे डाँटा कि उसकी आँखों में आँसू आ गयें अहो! शिष्य पर कषाय कर रहे हैं, फिर भी हिंसक नहीं थें वे कह रहे थे, बेटा! गलती मत करो, यह मोक्षमार्ग हैं वे सुधार की दृष्टि से समझा रहे थे, अतः वे हिंसक नहीं थे; क्योंकि उनकी दृष्टि में रक्षा थीं
गुरु कुलाल शिशु कुंभ है, घढ़-घढ़ काढ़े खोट भीतर हाथ पसार के बाहर मारे चोटं
जैसे कुंभकार घड़े को बनाता है, संभालता है, ऐसे ही गुरु भी कुंभकार के तुल्य होते हैं बाहर से जरूर लगता है कि ताप दे रहे हैं, पर अदंर से संभाल रहे हैं यह गुरु की दृष्टि है, इसीलिए वहाँ पर अहिंसा ही हैं इसी प्रकार वैद्य ने किसी का उपचार किया, परंतु उपचार के काल में ही उस मरीज की मृत्यु हो जाती Visit us at http://www.vishuddhasagar.com
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