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पुरुषार्थ सिद्धि उपाय : आचार्य अमत चंद्र स्वामी पुरुषार्थ देशना : परम पूज्य आचार्य श्री १०८ विशुद्ध सागरजी महाराज Page 201 of 583 ISBN # 81-7628-131-3 -2010:002
तकलीफ होती हो तो इतना विचार कर लेना कि मैं कर्म से नहीं बंधूंगां अतः ऐसे काम करना जिससे कर्म के बंधने से स्वयं की रक्षा प्रारंभ हो जाएं
भो ज्ञानी! तू सँभल-सँभल के चलेगा तो जीवों की रक्षा स्वयमेव ही हो जाएगी ज्ञानी पुरुष स्वयं की रक्षा करने के लिए ही दूसरों की रक्षा करते हैं और जब तक स्वयं की रक्षा के भाव नहीं आएँगे, तब तक आप अंतरंग से दूसरे की रक्षा कर भी नहीं पाओगें किसकी रक्षा कर रहे हो आप ? जीव की रक्षा तो उसके कर्म के ऊपर हैं आप रक्षा करनेवाले कौन? अरे! उस जीव का पुण्य-योग था जो कि आपको रक्षा के भाव आ गयें क्योंकि कभी-कभी लोग रक्षा तो कर लेते हैं, पर प्राण का वध होने में उस जीव को ऊतनी वेदना नहीं होती, जितनी आपकी रक्षा से होती हैं इसलिए हम जीव की रक्षा तो करें, लेकिन दयापूर्वक करें
भो ज्ञानियो! रक्षा तो करना, परंतु उसकी रक्षा के लिए नहीं अपितु अपने पापों से बचने के लिए, पुण्य करने के लिए और निज के उपयोग को निर्मल कर लेने के लिए धर्म करना कोई आपसे कहने लगे कि भैया! आपने मेरे साथ इतना अच्छा किया हैं तब आप कहना-कुछ नहीं कियां मैं क्या कर सकता हूँ? मैं तो निमित्त बना हूँ ऐसी भवितव्यता तुम्हारी थी कि यह यश मुझे मिलना था और आपका पुण्य का योग था, मैं नहीं आता तो दूसरा आपकी रक्षा करतां
भो मुमुक्षु आत्माओ! जब हनुमान का जन्म होने को था, तो गुफा के सामने शेर आ गयां माँ अंजनी थर-थर काँपने लगीं देखो, हनुमान सामान्य पुत्र नहीं थे, कामदेव थे, लेकिन कर्म किसी को नहीं छोड़तां वहाँ पर भी पुण्य था पलड़े में यक्ष ने देखा कि अबला के सामने सिंह खड़ा है और वह गर्भणी पुत्र को प्रसूत करनेवाली हैं यक्ष ने अष्टापद का रूप बना लिया और शेर के सामने खड़ा हो गयां मनीषियो! सिंह से कोई अधिक पराक्रमी होता है तो अष्टापद ही होता है और देखते ही देखते सिंह से युद्ध करने को तत्पर हो गयां वहाँ भी, मनीषियों! रक्षा करनेवाला कोई नहीं था, पर रक्षा हुई कि नहीं?
भो चैतन्य आत्माओ! ज्ञान की शक्ति भी तब ही काम आती है, जब तेरी पुण्य की शक्ति रहती हैं क्या रावण को ज्ञान नहीं था ? इतना बड़ा विद्वान्, जिसने विश्व की इतनी विद्याएँ सिद्ध की कि आज तक कोई भी इतनी सिद्धि नहीं कर पाया, लेकिन वह ज्ञान कहाँ चला गया? एक परनारी को देखकर विद्याएँ विचलित हो गयीं जब पुण्य क्षीण हो गया तो ज्ञान भी काम नहीं आयां इसीलिए कुंदकुंद स्वामी को लिखना ही पड़ा कि पुण्य का फल अरहंत-पर्याय हैं 'पद्म पुराण' में आचार्य श्री रविसेन स्वामी को लिखना पड़ा कि जीव पुण्य के न होने पर व्रतों का पालन नहीं कर पातां पंडित दौलतराम जी ने लिखा है 'मुनि सकलव्रती बड़भागी, क्योंकि भोगों से उदास होना प्रबल पुण्य का योग होता है और यह पुण्य एक भव की साधना नहीं समझनां जब तुमने छोटे-छोटे व्रतों का पालन किया था, तब ही इतना पुण्य का संचय किया थां संसार के शत्रुओं का नाश करने के लिए शरीर में बल चाहिए और यह बल अनेक भवों के पुण्य का फल हैं
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