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पुरुषार्थ सिद्धि उपाय : आचार्य अमृत चंद्र स्वामी
पुरुषार्थ देशना : परम पूज्य आचार्य श्री १०८ विशुद्ध सागरजी महाराज Page 200 of 583 ISBN # 81-7628-131-3
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निग्रंथ गुरु ही शरण हैं
हिंसाफलमपरस्य तु ददात्यहिंसा तु परिणामें इतरस्य पुनहिंसा दिशत्य - हिंसाफलं नान्यत्ं 57
अन्वयार्थ :
तु अपरस्य = और किसी को अहिंसा परिणामे
को देती हैं तु पुनः = तथां इतरस्य हिंसा = को देती हैं अन्यत् न = अन्य फल को नहीं
=
अहिंसा उदयकाल में हिंसा फलम् ददाति = हिंसा के फल अन्य किसी को हिंसां अहिंसा फलम् दिशति = अहिंसा के फल
इति विविधभंगगहने सुदुस्तरे मार्गमूढ़दृष्टीनाम्ं गुरवो भवन्ति शरणं प्रबुद्धनयचक्रसंचारा: 58
अन्वयार्थ :
इति = इस प्रकार से दुस्तरे अत्यंत कठिनाई से पार किये जाने वाले विविध भंगगहने =नाना भंगों से युक्त गहन वन में मार्गमूढदृष्टिनाम् मार्गमूढदृष्टि पुरुषों को अर्थात् मार्ग भूले हुए पुरुषों कों प्रबुद्धनयचक्रसंचाराः अनेक प्रकार के नयसमूह को जाननेवालें गुरुवः शरणं भवन्ति
श्री गुरु ही शरण
होते हैं
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मनीषियो! अमृतचंद स्वामी ने 'ग्रंथराज पुरुषार्थं सिद्धयुपाय में चर्चा की है कि जो अहिंसा का पालन कर रहा है वह दूसरे की रक्षा नहीं, वरन् स्वयं की रक्षा कर रहा है; क्योंकि ज्ञानी, पर की रक्षा का भी कर्ता नहीं बनतां वह स्वयं की रक्षा के भाव में जितना जीता है वह ही पर की रक्षा हैं अहो ज्ञानी आत्माओ ! एक चींटी जा रही थीं उस चींटी को बचाने के भाव तेरे मन में आए, कि निज को बचाने के भाव तेरे मन में आए ? जो निज की रक्षा करता है, वही विश्व की रक्षा कर सकता हैं निर्ग्रथ योगी कभी किसी जीव की रक्षा नहीं करते, वह तो स्वयं की ही रक्षा करते हैं और जो स्वयं की रक्षा करता है, वह कभी किसी की हिंसा भी नहीं करतां मुमुक्षु जीव निज को कर्म से बचाने के लिए पुरुषार्थ करता हैं किसी की रक्षा करने में आपको
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