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पुरुषार्थ सिद्धि उपाय : आचार्य अमृत चंद्र स्वामी
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पुरुषार्थ देशना परम पूज्य आचार्य श्री १०८ विशुद्ध सागरजी महाराज Page 182 of 583
ISBN # 81-7628-131-3
v- 2010:002
भोगी का भाव है और इन्द्रियों के स्वामी बनने का भाव योगी भाव हैं जो जितेन्द्रिय नहीं है, वे हिंसक ही हैं जितेन्द्रिय ही अहिंसक हैं
भो मुमुक्षु आत्माओ ! जिसके पास अहिंसाधर्म ही नहीं, उसके पास सहानुभूति कहाँ ? और जिसके पास सहानुभूति नहीं, उसके पास स्वानुभूति कहाँ ? तुम करोड़ों दान दो या न दो, लेकिन इतना करना कि अवश्य किसी तड़फते हुये गरीब को सहानुभूति दे देनां इसमें क्या खर्च हो रहा आपका? ओहो! धन के दानी करोड़ों हैं, परंतु सहानुभूति न देनेवाले दरिद्रियों की संख्या करोड़ों में नहीं अरबों-खरबों में हैं इतनी दरिद्रता छा चुकी है कि संवेदी भाव नहीं आ रहा है, संवेदनायें नष्ट हो रही हैं मनुष्य के टुकड़े होते देख रहे हैं और मुख में ग्रास दबाये जा रहे हों कम से कम भोजन करते-करते तुम टेलीविजन तो मत देखनां भो ज्ञानी ! जीवों का घात आँखों से देखते हुये भोजन तो नहीं करना आपके आगम में उस स्थान का नाम चौका हैं जहाँ मन की शुद्धि हो, वचन की शुद्धि हो, शरीर की शुद्धि हो और भोजन की शुद्धि हो, क्षेत्र - शुद्धि है, भाव-शुद्धि है तो अन्तरंग में विशुद्धि हैं देखो, क्षेत्रों का कैसा प्रभाव पड़ता है? क्रूर क्षेत्र में एक माँ और बेटे का झगड़ा हुआं माँ ने बेटे के दो टुकड़े कर दिये, क्योंकि क्रूर-वर्गणाएँ उस क्षेत्र में फैली हुईं थीं, इसीलिए माँ को संवेदना नहीं थीं जब आप भोजन कर रहे हो, चित्र सामने आ रहे हैं यह मारा, वह मारा, तब भोजन के साथ-साथ वे वर्गणाएँ भी तुम्हारे अंदर प्रवेश कर जाती हैं और फिर बेटा माँ को माँ नहीं कह पाता, माँ बेटे को बेटा नहीं कह पाती है, क्योंकि तुम्हारी संवेदनाएँ मर चुकीं हैं सप्तव्यसन के डिब्बे के सामने बैठकरं भो ज्ञानी आत्माओ ! आज विवेक से सोचकर जाना, टेलीविजन को देखते-देखते भोजन नहीं करनां कम-से-कम भोजन का स्वाद तो आता रहेगा, अन्यथा पता ही नहीं चलता कि चित्र का स्वाद ले रहे हैं या भोजन का, क्योंकि एक समय में एक ही उपयोग होता हैं फिर झुंझलाते हो घर में, कि खा तो सब गये, पर स्वाद नहीं आयां देखो, प्रेम की गंगा बहेगीं बस, कुछ नहीं करनां किसी को हटाना नहीं, बस हट जाओं
भो ज्ञानी! जो पर को हटाकर संत बनना चाहता है, वह हठी तो बन सकता है, पर संत नहीं बन सकतां पर को हटाकर साधु नहीं बना जाता है, पर से हटकर ही साधु बना जाता हैं मुमुक्षु हटकर ही रहता हैं ज्ञानी भगाता नहीं, भाग जाता है, वो ही भगवान् होता हैं यदि वास्तव में भगवान् बनना है, तो हिंसा से भाग जाओ, और अहिंसा की ओर चले जाओं हे मुमुक्षु आत्माओ ! दृष्टि को निर्मल करके सुननां जो निश्चय मात्र को मानकर बैठा है, वह जिन - शासन का शत्रु हैं जो व्यवहार मात्र को मानकर बैठा है, वह भी जिन शासन का शत्रु हैं अमृतचन्द्र स्वामी पचासवीं कारिका / गाथा में कह रहे हैं कि जो यह कहता हैं कि मैं तो निजानंद-रस में लवलीन हूँ यह वाह्य चर्या तो पाखण्ड है, ढोंग हैं भो ज्ञानी! तू छद्मवेषी हैं ढोंग करके अपनी आत्मा से छल मत करं अमृतचन्द्र स्वामी कह रहे हैं कि तुम पापों से व अशुभ परिणति से डरों तुझे कर्मों से डर नहीं, क्योंकि कर्म द्वेषी, पापी को पकड़ते हैं, परंतु हमने पापों को ही पकड़कर पटक दिया हैं
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