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पुरुषार्थ सिद्धि उपाय : आचार्य अमृत चंद्र स्वामी
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पुरुषार्थ देशना परम पूज्य आचार्य श्री १०८ विशुद्ध सागरजी महाराज Page 181 of 583
ISBN # 81-7628-131-3
v- 2010:002
हाथी जैसा क्रोध कर रहे हों भो ज्ञानी! जो शक्ति तुझे सिद्ध बनने में लगाना चाहिए वह उस छोटी सी चींटी को मारने में नष्ट कर दीं मोह राजा को जीतने के लिए अपनी सत्ता की शक्ति को भूलकर तू कहाँ लिप्त हो रहा है ? इसीलिए ध्यान रखना किसी से तुम्हारा कुछ हो भी गया हो तो अंदर से निकाल देना, क्योंकि घात उसका नहीं, घात आपका हैं
हे पर्ण! तू वृक्ष से नाराज मत हों तू वृक्ष से गुस्सा होकर उसका कुछ नहीं कर पायेगां वृक्ष तो आकाश में खड़ा है, खड़ा ही रहेगा, लेकिन पतन तुम्हारा ही होगां शांति से रहो, अन्यथा नीचे गिर जाओगे, फिर लगनेवाले नहीं हों वृक्ष में तो अनेक पत्र आ जायेंगे, लेकिन, हे पत्र ! तू वृक्ष पर पुनः नहीं लग पायेगां अहो ज्ञानी! ऐसे ही तू पंचपरमेष्ठी व वीतरागधर्म को छोड़कर मत चले जाना, अन्यथा तुम्हारा पतन हो जायेगा, वीतरागधर्म को माननेवाले तो अनेक आ जायेंगे यह मार्ग नष्ट नहीं होगां कषायी जीव मोक्षमार्ग को देखकर परस्पर में उलझ - उलझकर नीचे गिर जाते हैं परंतु मोक्षमार्ग के वृक्ष को आँच आने वाली नहीं हैं ध्यान रखना, यह शाश्वत वृक्ष हैं वनस्पतिकायिक नहीं है, पृथ्वीकायिक नहीं है, यह रत्नत्रय का द्रुम हैं इस मोक्षमार्ग के वृक्ष की डाली-डाली पर मुनिरूपी - खग जिनेन्द्र की देशना को कंठ से उच्चारण कर रहे हैं। मोक्षमार्ग के वृक्ष की डाली पर बैठकर वे उस परमहंस को देख रहे हैं हे पक्षी! तू पुनः वृक्ष पर ही बैठ जा अन्यथा जमीन पर तो तुझे कोई भी स्वान उठा ले जायेगा, कोई बहेलिया बाण मार देगां जाओ, जाकर वृक्ष की डालियों में छुप जाओ, तुम्हारी रक्षा हो जायेगीं भो ज्ञानी आत्माओ ! तुम रत्नत्रय के वृक्ष की डाली पर जाकर बैठ जाओ, कर्म - बहेलिया से तेरी रक्षा हो जायेगीं कर्म का बहेलिया तो कहता है कि तुम कषाय के परिणाम करो और हमने तुमको पकड़ा इसीलिए अमृतचन्द्र स्वामी कह रहे हैं कि पर की ही अहिंसा नहीं, अहिंसा स्वयं की भी करों पर की रक्षा तो करना, परन्तु पर- की रक्षा के पीछे अपने परिणाम खराब नहीं करना जिन- शासन श्रमण संस्कृति यह नहीं कहती कि पर की रक्षा के पीछे दूसरों का घात कर दो फिर रक्षा हुई कहाँ ? भो चैतन्य ! दोनों की ही रक्षा करों जो दोनों की रक्षा कर रहा है, उसका नाम मुमुक्षु हैं इंद्रियों से भी आत्मा का घात हो रहा हैं इंद्रियों की भी रक्षा करो और इन्द्रियों से भी रक्षा करों इन्द्रियों की रक्षा नहीं करोगे तो आप भगवान् नहीं बन पाओगे और इन्द्रियों से रक्षा नहीं करोगे तो भी आप भगवान् नहीं बन पाओगें भो ज्ञानी ! पंचेन्द्रिय का ही निर्वाण होता हैं इन्द्रियाँ विकल हो जायेंगी तो सल्लेखना के काल में जिनवाणी कौन सुन पायेगा ? यदि नेत्र काम करना बंद कर देंगे तो तू ईर्यापथ का शोधन किससे करेगा ? पैर काम नहीं करेंगे, तो जिनदेव की वंदना कैसे करोगे ? हाथ काम नहीं करेंगे तो निग्रंथों के हाथ पर ग्रास कैसे रखोगे ? इसीलिए, भो ज्ञानी ! जिनशासन में इन्द्रियों का नाश नहीं कराया, इन्द्रियों के नाश करने को जितेन्द्रिय नहीं कहा, इन्द्रियों के विषयों का दास न बनने को जितेन्द्रिय कहा हैं इन्द्रियों के दास बनना तो
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