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________________ पुरुषार्थ सिद्धि उपाय : आचार्य अमत चंद्र स्वामी पुरुषार्थ देशना : परम पूज्य आचार्य श्री १०८ विशुद्ध सागरजी महाराज Page 176 of 583 ISBN # 81-7628-131-3 -2010:002 गुड़ से मिश्रित दूध पिलाइये, लेकिन विषधर को निर्विष नहीं किया जा सकतां इसी प्रकार अशुभ आयु का बंध जिसने कर लिया है, तीर्थकर प्रभु की सामर्थ्य नहीं कि उसे टाल सकें अपकर्षण हो सकता है, छूट नहीं सकतें अहो श्रावको! आरम्भी, उद्योगी, विरोधी, संकल्पी यह चार प्रकार की हिंसा हैं इनमें संकल्पीहिंसा का त्यागी तो प्रत्येक श्रावक होता ही हैं यदि संकल्पीहिंसा का भी तुम्हारा त्याग नहीं है, तो अपने आप को जैन कहना बंद कर देना अहो! भीख मांगनेवाला भगवान् का नाम लेकर, पाप से मुक्त होकर चला जायेगा, लेकिन भवनों में रहनेवाली आत्माओ! हिंसा का उपदेश करके तुम कभी भी संसार से पार नहीं हो सकतें हमारे आचार्य ने तो यहाँ तक लिख दिया कि हम चेटी (दासी) के पुत्र बन सकते हैं पर, हे नाथ! चक्रवर्ती के वैभव को प्राप्त कर मैं मिथ्यात्व की उपासना नहीं करना चाहता, असंयम की उपासना नहीं करना चाहता, क्योंकि चेटी का पुत्र चेटी का पुत्र तो है, पर पापी का पुत्र नहीं लोग उसे गरीब की दृष्टि से तो देख सकते हैं, पर पापी की दृष्टि से नहीं देखतें इसी प्रकार से भीख माँगकर शुद्ध भोजन कर लेना अच्छा है, परन्तु अनंत जीवों का घात करके पकवान्न खाना अच्छा नहीं भो ज्ञानी! आप ब्याज का खाते हों बेचारे गरीब रो रहे हैं, उनके पुत्र भूखे मर रहे हैं, पर तुम्हें कोई करुणा नहीं होती हैं अहो! ब्याज खानेवाली आत्माओ! आज तनिक सोच लेना, यह सब प्रमाद चल रहा हैं मुर्गीपालन, मछलीपालन जैसे अशुभ कृत्यों में तुम्हारा धन जा रहा है, बैंक से तुम्हें ब्याज मिल रहा है, उसका परिणाम तो भोगना पड़ेगां भो ज्ञानी आत्माओ! जिस दिन आप महावीर स्वामी की अहिंसा को समझ लोगे, उस दिन आपका जीवन कुछ और ही होगां इसलिए ध्यान रखना, जिस कुटुम्ब में जिस जीव की परिणति आपको हिंसक झलक रही हो, उनसे सम्पर्क कम कर लेनां उनका सम्मान तो रखना, परंतु उनकी बातें इसलिए मत मान लेना कि वे वृद्ध हैं हमारी जिनवाणी में ज्ञान-वृद्ध, चारित्र-वृद्ध, तप-वृद्ध एवं उम्र-वृद्ध का उल्लेख हैं हमारे आगम में सामान्य वृद्ध की पूजा नहीं, संयम-वृद्ध की पूजा होती हैं अहो! विवेक लगानां बेटे के भाव हो रहे हैं दान देने के और पिताजी कह रहे हैं-अरे! कल क्या होगा? इसलिए धर्म में जीने के लिए उत्साह की परम आवश्यकता हैं यदि उमंग नहीं है, तो आप न श्रावकधर्म का पालन कर सकते हो और न यतिधर्म का उत्साह तो चारित्र के प्राण हैं जो उत्साह आपको प्रथम दिन था, वैसा ही उत्साह अंतिम दिन तक रहे, उससे बड़ा पुण्यात्मा संसार में कोई नहीं इसलिए प्रमाद छोड़कर अब जाग जाओं अहो! अज्ञानी सोने को ही सोना मान लेता है, परंतु ज्ञानी सोने को सोना नहीं मानता, वह तो संयम को ही सोना मानता हैं आचार्य महाराज कह रहे हैं-"संयम-सोने को समझो, इस सोने को छोड़ दों" । भो ज्ञानी! जो जीव कषाय से युक्त होता है, वह सबसे पहले अपने आत्मा से अपनी आत्मा का घात करता हैं अहो! अग्नि के अंगारे को हाथ में उठाकर मारनेवाले से पूछना कि दूसरे को लगे या न लगे, परन्तु Visit us at http://www.vishuddhasagar.com Copy and All rights reserved by www.vishuddhasagar.com For more info please contact : akshayakumar_jain@yahoo.com or pkjainwater@yahoo.com
SR No.009999
Book TitlePurusharth Siddhi Upay
Original Sutra AuthorAmrutchandracharya
AuthorVishuddhsagar
PublisherVishuddhsagar
Publication Year
Total Pages584
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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